वह चंद्रहीन थी एक रात,
जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ
उजले-उजले तारक झलमल,
प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,
धारा बह जाती बिंब अटल,
खुलता था धीरे पवन-पटल
चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत
सुनती जैसे कुछ निजी बात।
धूमिल छायायें रहीं घूम,
लहरी पैरों को रही चूम,
“माँ तू चल आयी दूर इधर,
सन्ध्या कब की चल गयी उधर,
इस निर्जन में अब कया सुंदर-
तू देख रही, माँ बस चल घर
उसमें से उठता गंध-धूम”
श्रद्धाने वह मुख लिया चूम।
“माँ क्यों तू है इतनी उदास,
क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास,
तू कई दिनों से यों चुप रह,
क्या सोच रही? कुछ तो कह,
यह कैसा तेरा दुख-दुसह,
जो बाहर-भीतर देता दह,
लेती ढीली सी भरी साँस,
जैसी होती जाती हताश।”
वह बोली “नील गगन अपार,
जिसमें अवनत घन सजल भार,
आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल
शिशु सा आता कर खेल अनिल,
फिर झलमल सुंदर तारक दल,
नभ रजनी के जुगुनू अविरल,
यह विश्व अरे कितना उदार,
मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार।
यह लोचन-गोचर-सकल-लोक,
संसृति के कल्पित हर्ष शोक,
भावादधि से किरनों के मग,
स्वाती कन से बन भरते जग,
उत्थान-पतनमय सतत सजग,
झरने झरते आलिगित नग,
उलझन मीठी रोक टोक,
यह सब उसकी है नोंक झोंक।
जग, जगता आँखे किये लाल,
सोता ओढे तम-नींद-जाल,
सुरधनु सा अपना रंग बदल,
मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल,
अपनी सुषमा में यह झलमल,
इस पर खिलता झरता उडुदल,
अवकाश-सरोवर का मराल,
कितना सुंदर कितना विशाल
इसके स्तर-स्तर में मौन शांति,
शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति,
परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल,
मुस्क्याते इसमें भाव सकल,
हँसता है इसमें कोलाहल,
उल्लास भरा सा अंतस्तल,
मेरा निवास अति-मधुर-काँति,
यह एक नीड है सुखद शांति
“अबे फिर क्यों इतना विराग,
मुझ पर न हुई क्यों सानुराग?”
पीछे मुड श्रद्धा ने देखा,
वह इडा मलिन छवि की रेखा,
ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा,
जिस पर विषाद की विष-रेखा,
कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग,
सोया जिसका है भाग्य, जाग।
बोली “तुमसे कैसी विरक्ति,
तुम जीवन की अंधानुरक्ति,
मुझसे बिछुडे को अवलंबन,
देकर, तुमने रक्खा जीवन,
तुम आशामयि चिर आकर्षण,
तुम मादकता की अवनत धन,
मनु के मस्तककी चिर-अतृप्ति,
तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति
मैं क्या तुम्हें दे सकती मोल,
यह हृदय अरे दो मधुर बोल,
मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ,
मैं पाती हूँ खो देती हूँ,
इससे ले उसको देती हूँ,
मैं दुख को सुख कर लेती हूँ,
अनुराग भरी हूँ मधुर घोल,
चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।
यह प्रभापूर्ण तव मुख निहार,
मनु हत-चेतन थे एक बार,
नारी माया-ममता का बल,
वह शक्तिमयी छाया शीतल,
फिर कौन क्षमा कर दे निश्छल,
जिससे यह धन्य बने भूतल,
‘तुम क्षमा करोगी’ यह विचार
मैं छोडूँ कैसे साधिकार।”
“अब मैं रह सकती नहीं मौन,
अपराधी किंतु यहाँ न कौन?
सुख-दुख जीवन में सब सहते,
पर केव सुख अपना कहते,
अधिकार न सीमा में रहते।
पावस-निर्झर-से वे बहते,
रोके फिर उनको भला कौन?
सब को वे कहते-शत्रु हो न”
अग्रसर हो रही यहाँ फूट,
सीमायें कृत्रिम रहीं टूट,
श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें,
अपने बल का है गर्व उन्हें,
नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें,
विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें,
सब पिये मत्त लालसा घूँट,
मेरा साहस अब गया छूट।
मैं जनपद-कल्याणी प्रसिद्ध,
अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध,
मेरे सुविभाजन हुए विषम,
टूटते, नित्य बन रहे नियम
नाना केंद्रों में जलधर-सम,
घिर हट, बरसे ये उपलोपम
यह ज्वाला इतनी है समिद्ध,
आहुति बस चाह रही समृद्ध।
तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत,
संहार-बध्य असहाय दांत,
प्राणी विनाश-मुख में अविरल,
चुपचाप चले होकर निर्बल
संघर्ष कर्म का मिथ्या बल,
ये शक्ति-चिन्ह, ये यज्ञ विफल,
भय की उपासना प्रणाति भ्रांत
अनिशासन की छाया अशांत
तिस पर मैंने छीना सुहाग,
हे देवि तुम्हारा दिव्य-राग,
मैम आज अकिंचन पाती हूँ,
अपने को नहीं सुहाती हूँ,
मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूँ,
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ,
दो क्षमा, न दो अपना विराग,
सोयी चेतनता उठे जाग।”
“है रुद्र-रोष अब तक अशांत”
श्रद्धा बोली, ” बन विषम ध्वांत
सिर चढी रही पाया न हृदय
तू विकल कर रही है अभिनय,
अपनापन चेतन का सुखमय
खो गया, नहीं आलोक उदय,
सब अपने पथ पर चलें श्रांत,
प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।
जीवन धारा सुंदर प्रवाह,
सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह,
ओ तर्कमयी तू गिने लहर,
प्रतिबिंबित तारा पकड, ठहर,
तू रुक-रुक देखे आठ पहर,
वह जडता की स्थिति, भूल न कर,
सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह,
तू ने छोडी यह सरल राह।
चेतनता का भौतिक विभाग-
कर, जग को बाँट दिया विराग,
चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत,
वह रूप बदलता है शत-शत,
कण विरह-मिलन-मय-नृत्य-निरत
उल्लासपूर्ण आनंद सतत
तल्लीन-पूर्ण है एक राग,
झंकृत है केवल ‘जाग जाग’
मैं लोक-अग्नि में तप नितांत,
आहुति प्रसन्न देती प्रशांत,
तू क्षमा न कर कुछ चाह रही,
जलती छाती की दाह रही,
तू ले ले जो निधि पास रही,
मुझको बस अपनी राह रही,
रह सौम्य यहीं, हो सुखद प्रांत,
विनिमय कर दे कर कर्म कांत।
तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति,
शासक बन फैलाओ न भीती,
मैं अपने मनु को खोज चली,
सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,
वह भोला इतना नहीं छली
मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली,
तब देखूँ कैसी चली रीति,
मानव तेरी हो सुयश गीति।”
बोला बालक ” ममता न तोड,
जननी मुझसे मुँह यों न मोड,
तेरी आज्ञा का कर पालन,
वह स्नेह सदा करता लालन।
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दर्शन / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन,
वरदान बने मेरा जीवन
जो मुझको तू यों चली छोड,
तो मुझे मिले फिर यही क्रोड”
“हे सौम्य इडा का शुचि दुलार,
हर लेगा तेरा व्यथा-भार,
यह तर्कमयी तू श्रद्धामय,
तू मननशील कर कर्म अभय,
इसका तू सब संताप निचय,
हर ले, हो मानव भाग्य उदय,
सब की समरसता कर प्रचार,
मेरे सुत सुन माँ की पुकार।”
“अति मधुर वचन विश्वास मूल,
मुझको न कभी ये जायँ भूल
हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल,
बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल,
आकर्षण घन-सा वितरे जल,
निर्वासित हों संताप सकल”
कहा इडा प्रणत ले चरण धूल,
पकडा कुमार-कर मृदुल फूल।
वे तीनों ही क्षण एक मौन-
विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन
विच्छेद बाह्य, था आलिगंन-
वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन,
मिलते आहत होकर जलकन,
लहरों का यह परिणत जीवन,
दो लौट चले पुर ओर मौन,
जब दूर हुए तब रहे दो न।
निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत,
वह था असीम का चित्र कांत।
कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर,
व्यथिता रजनी के श्रमसींकर,
झलके कब से पर पडे न झर,
गंभीर मलिन छाया भू पर,
सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,
केवल बिखेरता दीन ध्वांत।
शत-शत तारा मंडित अनंत,
कुसुमों का स्तबक खिला बसंत,
हँसता ऊपर का विश्व मधुर,
हलके प्रकाश से पूरित उर,
बहती माया सरिता ऊपर,
उठती किरणों की लोल लहर,
निचले स्तर पर छाया दुरंत,
आती चुपके, जाती तुरंत।
सरिता का वह एकांत कूल,
था पवन हिंडोले रहा झूल,
धीरे-धीरे लहरों का दल,
तट से टकरा होता ओझल,
छप-छप का होता शब्द विरल,
थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल
संसृति अपने में रही भूल,
वह गंध-विधुर अम्लान फूल।
तब सरस्वती-सा फेंक साँस,
श्रद्धा ने देखा आस-पास,
थे चमक रहे दो फूल नयन,
ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन,
वह क्या तम में करता सनसन?
धारा का ही क्या यह निस्वन
ना, गुहा लतावृत एक पास,
कोई जीवित ले रहा साँस।
वह निर्जन तट था एक चित्र,
कितना सुंदर, कितना पवित्र?
कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर,
फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर,
वह लोक-अग्नि में तप गल कर,
थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर,
मनु ने देखा कितना विचित्र
वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र।
बोले “रमणी तुम नहीं आह
जिसके मन में हो भरी चाह,
तुमने अपना सब कुछ खोकर,
वंचिते जिसे पाया रोकर,
मैं भगा प्राण जिनसे लेकर,
उसको भी, उन सब को देकर,
निर्दय मन क्या न उठा कराह?
अद्भुत है तब मन का प्रवाह
ये श्वापद से हिंसक अधीर,
कोमल शावक वह बाल वीर,
सुनता था वह प्राणी शीतल,
कितना दुलार कितना निर्मल
कैसा कठोर है तव हृत्तल
वह इडा कर गयी फिर भी छल,
तुम बनी रही हो अभी धीर,
छुट गया हाथ से आह तीर।”
“प्रिय अब तक हो इतने सशंक,
देकर कुछ कोई नहीं रंक,
यह विनियम है या परिवर्त्तन,
बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन,
अपराध तुम्हारा वह बंधन-
लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन-
निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक?
दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।”
“तुम देवि आह कितनी उदार,
यह मातृमूर्ति है निर्विकार,
हे सर्वमंगले तुम महती,
सबका दुख अपने पर सहती,
कल्याणमयी वाणी कहती,
तुम क्षमा निलय में हो रहती,
मैं भूला हूँ तुमको निहार-
नारी सा ही, वह लघु विचार।
मैं इस निर्जन तट में अधीर,
सह भूख व्यथा तीखा समीर,
हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर,
चलता ही आया हूँ बढ कर,
इनके विकार सा ही बन कर,
मैं शून्य बना सत्ता खोकर,
लघुता मत देखो वक्ष चीर,
जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।”
“प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात,
है स्मरण कराती विगत बात,
वह प्रलय शांति वह कोलाहल,
जब अर्पित कर जीवन संबल,
मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल,
क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल?
तब चलो जहाँ पर शांति प्रात,
मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।
इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक-
मानव कर ले सब भूल ठीक,
यह विष जो फैला महा-विषम,
निज कर्मोन्नति से करते सम,
सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम,
उनका रहस्य हो शुभ-संयम,
गिर जायेगा जो है अलीक,
चल कर मिटती है पडी लीक।”
वह शून्य असत या अंधकार,
अवकाश पटल का वार पार,
बाहर भीतर उन्मुक्त सघन,
था अचल महा नीला अंजन,
भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन,
थे निर्निमेष मनु के लोचन,
इतना अनंत था शून्य-सार,
दीखता न जिसके परे पार।
सत्ता का स्पंदन चला डोल,
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,
तम जलनिधि बन मधुमंथन,
ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,
वह रजत गौर, उज्जवल जीवन,
आलोक पुरुष मंगल चेतन
केवल प्रकाश का था कलोल,
मधु किरणों की थी लहर लोल।
बन गया तमस था अलक जाल,
सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,
अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित,
थी शून्य-भेदिनी-सत्ता चित्त,
नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,
था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।
लीला का स्पंदित आह्लाद,
वह प्रभा-पुंज चितिमय प्रसाद,
आनन्द पूर्ण तांडव सुंदर,
झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,
बनते तारा, हिमकर, दिनकर
उड रहे धूलिकण-से भूधर,
संहार सृजन से युगल पाद-
गतिशील, अनाहत हुआ नाद।
बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,
युग ग्रहण कर रहे तोल,
विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर,
कंपित संसृति बन रही उधर,
चेतन परमाणु अनंथ बिखर,
बनते विलीन होते क्षण भर
यह विश्व झुलता महा दोल,
परिवर्त्तन का पट रहा खोल।
उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,
सब शाप पाप का कर विनाश-
नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर,
उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर
अपना स्वरूप धरती सुंदर,
कमनीय बना था भीषणतर,
हीरक-गिरी पर विद्युत-विलास,
उल्लसित महा हिम धवल हास।
देखा मनु ने नर्त्तित नटेश,
हत चेत पुकार उठे विशेष-
“यह क्या श्रद्धे बस तू ले चल,
उन चरणों तक, दे निज संबल,
सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल,
पावन बन जाते हैं निर्मल,
मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,
समरस, अखंड, आनंद-वेश” ।
वरदान बने मेरा जीवन
जो मुझको तू यों चली छोड,
तो मुझे मिले फिर यही क्रोड”
“हे सौम्य इडा का शुचि दुलार,
हर लेगा तेरा व्यथा-भार,
यह तर्कमयी तू श्रद्धामय,
तू मननशील कर कर्म अभय,
इसका तू सब संताप निचय,
हर ले, हो मानव भाग्य उदय,
सब की समरसता कर प्रचार,
मेरे सुत सुन माँ की पुकार।”
“अति मधुर वचन विश्वास मूल,
मुझको न कभी ये जायँ भूल
हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल,
बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल,
आकर्षण घन-सा वितरे जल,
निर्वासित हों संताप सकल”
कहा इडा प्रणत ले चरण धूल,
पकडा कुमार-कर मृदुल फूल।
वे तीनों ही क्षण एक मौन-
विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन
विच्छेद बाह्य, था आलिगंन-
वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन,
मिलते आहत होकर जलकन,
लहरों का यह परिणत जीवन,
दो लौट चले पुर ओर मौन,
जब दूर हुए तब रहे दो न।
निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत,
वह था असीम का चित्र कांत।
कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर,
व्यथिता रजनी के श्रमसींकर,
झलके कब से पर पडे न झर,
गंभीर मलिन छाया भू पर,
सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,
केवल बिखेरता दीन ध्वांत।
शत-शत तारा मंडित अनंत,
कुसुमों का स्तबक खिला बसंत,
हँसता ऊपर का विश्व मधुर,
हलके प्रकाश से पूरित उर,
बहती माया सरिता ऊपर,
उठती किरणों की लोल लहर,
निचले स्तर पर छाया दुरंत,
आती चुपके, जाती तुरंत।
सरिता का वह एकांत कूल,
था पवन हिंडोले रहा झूल,
धीरे-धीरे लहरों का दल,
तट से टकरा होता ओझल,
छप-छप का होता शब्द विरल,
थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल
संसृति अपने में रही भूल,
वह गंध-विधुर अम्लान फूल।
तब सरस्वती-सा फेंक साँस,
श्रद्धा ने देखा आस-पास,
थे चमक रहे दो फूल नयन,
ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन,
वह क्या तम में करता सनसन?
धारा का ही क्या यह निस्वन
ना, गुहा लतावृत एक पास,
कोई जीवित ले रहा साँस।
वह निर्जन तट था एक चित्र,
कितना सुंदर, कितना पवित्र?
कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर,
फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर,
वह लोक-अग्नि में तप गल कर,
थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर,
मनु ने देखा कितना विचित्र
वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र।
बोले “रमणी तुम नहीं आह
जिसके मन में हो भरी चाह,
तुमने अपना सब कुछ खोकर,
वंचिते जिसे पाया रोकर,
मैं भगा प्राण जिनसे लेकर,
उसको भी, उन सब को देकर,
निर्दय मन क्या न उठा कराह?
अद्भुत है तब मन का प्रवाह
ये श्वापद से हिंसक अधीर,
कोमल शावक वह बाल वीर,
सुनता था वह प्राणी शीतल,
कितना दुलार कितना निर्मल
कैसा कठोर है तव हृत्तल
वह इडा कर गयी फिर भी छल,
तुम बनी रही हो अभी धीर,
छुट गया हाथ से आह तीर।”
“प्रिय अब तक हो इतने सशंक,
देकर कुछ कोई नहीं रंक,
यह विनियम है या परिवर्त्तन,
बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन,
अपराध तुम्हारा वह बंधन-
लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन-
निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक?
दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।”
“तुम देवि आह कितनी उदार,
यह मातृमूर्ति है निर्विकार,
हे सर्वमंगले तुम महती,
सबका दुख अपने पर सहती,
कल्याणमयी वाणी कहती,
तुम क्षमा निलय में हो रहती,
मैं भूला हूँ तुमको निहार-
नारी सा ही, वह लघु विचार।
मैं इस निर्जन तट में अधीर,
सह भूख व्यथा तीखा समीर,
हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर,
चलता ही आया हूँ बढ कर,
इनके विकार सा ही बन कर,
मैं शून्य बना सत्ता खोकर,
लघुता मत देखो वक्ष चीर,
जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।”
“प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात,
है स्मरण कराती विगत बात,
वह प्रलय शांति वह कोलाहल,
जब अर्पित कर जीवन संबल,
मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल,
क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल?
तब चलो जहाँ पर शांति प्रात,
मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।
इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक-
मानव कर ले सब भूल ठीक,
यह विष जो फैला महा-विषम,
निज कर्मोन्नति से करते सम,
सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम,
उनका रहस्य हो शुभ-संयम,
गिर जायेगा जो है अलीक,
चल कर मिटती है पडी लीक।”
वह शून्य असत या अंधकार,
अवकाश पटल का वार पार,
बाहर भीतर उन्मुक्त सघन,
था अचल महा नीला अंजन,
भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन,
थे निर्निमेष मनु के लोचन,
इतना अनंत था शून्य-सार,
दीखता न जिसके परे पार।
सत्ता का स्पंदन चला डोल,
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,
तम जलनिधि बन मधुमंथन,
ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,
वह रजत गौर, उज्जवल जीवन,
आलोक पुरुष मंगल चेतन
केवल प्रकाश का था कलोल,
मधु किरणों की थी लहर लोल।
बन गया तमस था अलक जाल,
सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,
अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित,
थी शून्य-भेदिनी-सत्ता चित्त,
नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,
था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।
लीला का स्पंदित आह्लाद,
वह प्रभा-पुंज चितिमय प्रसाद,
आनन्द पूर्ण तांडव सुंदर,
झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,
बनते तारा, हिमकर, दिनकर
उड रहे धूलिकण-से भूधर,
संहार सृजन से युगल पाद-
गतिशील, अनाहत हुआ नाद।
बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,
युग ग्रहण कर रहे तोल,
विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर,
कंपित संसृति बन रही उधर,
चेतन परमाणु अनंथ बिखर,
बनते विलीन होते क्षण भर
यह विश्व झुलता महा दोल,
परिवर्त्तन का पट रहा खोल।
उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,
सब शाप पाप का कर विनाश-
नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर,
उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर
अपना स्वरूप धरती सुंदर,
कमनीय बना था भीषणतर,
हीरक-गिरी पर विद्युत-विलास,
उल्लसित महा हिम धवल हास।
देखा मनु ने नर्त्तित नटेश,
हत चेत पुकार उठे विशेष-
“यह क्या श्रद्धे बस तू ले चल,
उन चरणों तक, दे निज संबल,
सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल,
पावन बन जाते हैं निर्मल,
मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,
समरस, अखंड, आनंद-वेश” ।
रहस्य / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
उर्ध्व देश उस नील तमस में,
स्तब्ध हि रही अचल हिमानी,
पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक,
देख रहा वह गिरि अभिमानी,
दोनों पथिक चले हैं कब से,
ऊँचे-ऊँचे चढते जाते,
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे,
साहस उत्साही से बढते।
पवन वेग प्रतिकूल उधर था,
कहता-‘फिर जा अरे बटोही
किधर चला तू मुझे भेद कर
प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही?
छूने को अंबर मचली सी
बढी जा रही सतत उँचाई
विक्षत उसके अंग, प्रगट थे
भीषण खड्ड भयकारी खाँई।
रविकर हिमखंडों पर पड कर
हिमकर कितने नये बनाता,
दुततर चक्कर काट पवन थी
फिर से वहीं लौट आ जाता।
नीचे जलधर दौड रहे थे
सुंदर सुर-धनु माला पहने,
कुंजर-कलभ सदृश इठलाते,
चपला के गहने।
प्रवहमान थे निम्न देश में
शीतल शत-शत निर्झर ऐसे
महाश्वेत गजराज गंड से
बिखरीं मधु धारायें जैसे।
हरियाली जिनकी उभरी,
वे समतल चित्रपटी से लगते,
प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर,
नद जो प्रति पल थे भगते।
लघुतम वे सब जो वसुधा पर
ऊपर महाशून्य का घेरा,
ऊँचे चढने की रजनी का,
यहाँ हुआ जा रहा सबेरा,
“कहाँ ले चली हो अब मुझको,
श्रद्धे मैं थक चला अधिक हूँ,
साहस छूट गया है मेरा,
निस्संबल भग्नाश पथिक हूँ,
लौट चलो, इस वात-चक्र से मैं,
दुर्बल अब लड न सकूँगा,
श्वास रुद्ध करने वाले,
इस शीत पवन से अड न सकूँगा।
मेरे, हाँ वे सब मेरे थे,
जिन से रूठ चला आया हूँ।”
वे नीचे छूटे सुदूर,
पर भूल नहीं उनको पाया हूँ।”
वह विश्वास भरी स्मिति निश्छल,
श्रद्धा-मुख पर झलक उठी थी।
सेवा कर-पल्लव में उसके,
कुछ करने को ललक उठी थी।
दे अवलंब, विकल साथी को,
कामायनी मधुर स्वर बोली,
“हम बढ दूर निकल आये,
अब करने का अवसर न ठिठोली।
दिशा-विकंपित, पल असीम है,
यह अनंत सा कुछ ऊपर है,
अनुभव-करते हो, बोलो क्या,
पदतल में, सचमुच भूधर है?
निराधार हैं किंतु ठहरना,
हम दोनों को आज यहीं है
नियति खेल देखूँ न, सुनो
अब इसका अन्य उपाय नहीं है।
झाँई लगती, वह तुमको,
ऊपर उठने को है कहती,
इस प्रतिकूल पवन धक्के को,
झोंक दूसरी ही आ सहती।
श्रांत पक्ष, कर नेत्र बंद बस,
विहग-युगल से आज हम रहें,
शून्य पवन बन पंख हमारे,
हमको दें आधारा, जम रहें।
घबराओ मत यह समतल है,
देखो तो, हम कहाँ आ गये”
मनु ने देखा आँख खोलकर,
जैसे कुछ त्राण पा गये।
ऊष्मा का अभिनव अनुभव था,
ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे,
दिवा-रात्रि के संधिकाल में,
ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।
ऋतुओं के स्तर हुये तिरोहित,
भू-मंडल रेखा विलीन-सी
निराधार उस महादेश में,
उदित सचेतनता नवीन-सी।
त्रिदिक विश्व, आलोक बिंदु भी,
तीन दिखाई पडे अलग व,
त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे मानो वे,
अनमिल थे किंतु सजग थे।
मनु ने पूछा, “कौन नये,
ग्रह ये हैं श्रद्धे मुझे बताओ?
मैं किस लोक बीच पहुँचा,
इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ”
“इस त्रिकोण के मध्य बिंदु,
तुम शक्ति विपुल क्षमता वाले ये,
एक-एक को स्थिर हो देखो,
इच्छा ज्ञान, क्रिया वाले ये।
वह देखो रागारुण है जो,
उषा के कंदुक सा सुंदर,
छायामय कमनीय कलेवर,
भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर।
शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की,
पारदर्शिनी सुघड पुतलियाँ,
चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों,
रूपवती रंगीन तितलियाँ
इस कुसुमाकर के कानन के,
अरुण पराग पटल छाया में,
इठलातीं सोतीं जगतीं ये,
अपनी भाव भरी माया में।
वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी,
कोमल अँगडाई है लेती,
मादकता की लहर उठाकर,
अपना अंबर तर कर देती।
आलिगंन सी मधुर प्रेरणा,
छू लेती, फिर सिहरन बनती,
नव-अलंबुषा की व्रीडा-सी,
खुल जाती है, फिर जा मुँदती।
यह जीवन की मध्य-भूमि,
है रस धारा से सिंचित होती,
मधुर लालसा की लहरों से,
यह प्रवाहिका स्पंदित होती।
जिसके तट पर विद्युत-कण से।
मनोहारिणी आकृति वाले,
छायामय सुषमा में विह्वल,
विचर रहे सुंदर मतवाले।
सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र-से,
मधुर गंध उठती रस-भीनी,
वाष्प अदृश फुहारे इसमें,
छूट रहे, रस-बूँदे झीनी।
घूम रही है यहाँ चतुर्दिक,
चलचित्रों सी संसृति छाया,
जिस आलोक-विदु को घेरे,
वह बैठी मुसक्याती माया।
भाव चक्र यह चला रही है,
इच्छा की रथ-नाभि घूमती,
नवरस-भरी अराएँ अविरल,
चक्रवाल को चकित चूमतीं।
यहाँ मनोमय विश्व कर रहा,
रागारुण चेतन उपासना,
माया-राज्य यही परिपाटी,
पाश बिछा कर जीव फाँसना।
ये अशरीरी रूप, सुमन से,
केवल वर्ण गंध में फूले,
इन अप्सरियों की तानों के,
मचल रहे हैं सुंदर झूले।
भाव-भूमिका इसी लोक की,
जननी है सब पुण्य-पाप की।
ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति,
बन गल ज्वाला से मधुर ताप की।
नियममयी उलझन लतिका का,
भाव विटपि से आकर मिलना,
जीवन-वन की बनी समस्या,
आशा नभकुसुमों का खिलना।
स्तब्ध हि रही अचल हिमानी,
पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक,
देख रहा वह गिरि अभिमानी,
दोनों पथिक चले हैं कब से,
ऊँचे-ऊँचे चढते जाते,
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे,
साहस उत्साही से बढते।
पवन वेग प्रतिकूल उधर था,
कहता-‘फिर जा अरे बटोही
किधर चला तू मुझे भेद कर
प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही?
छूने को अंबर मचली सी
बढी जा रही सतत उँचाई
विक्षत उसके अंग, प्रगट थे
भीषण खड्ड भयकारी खाँई।
रविकर हिमखंडों पर पड कर
हिमकर कितने नये बनाता,
दुततर चक्कर काट पवन थी
फिर से वहीं लौट आ जाता।
नीचे जलधर दौड रहे थे
सुंदर सुर-धनु माला पहने,
कुंजर-कलभ सदृश इठलाते,
चपला के गहने।
प्रवहमान थे निम्न देश में
शीतल शत-शत निर्झर ऐसे
महाश्वेत गजराज गंड से
बिखरीं मधु धारायें जैसे।
हरियाली जिनकी उभरी,
वे समतल चित्रपटी से लगते,
प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर,
नद जो प्रति पल थे भगते।
लघुतम वे सब जो वसुधा पर
ऊपर महाशून्य का घेरा,
ऊँचे चढने की रजनी का,
यहाँ हुआ जा रहा सबेरा,
“कहाँ ले चली हो अब मुझको,
श्रद्धे मैं थक चला अधिक हूँ,
साहस छूट गया है मेरा,
निस्संबल भग्नाश पथिक हूँ,
लौट चलो, इस वात-चक्र से मैं,
दुर्बल अब लड न सकूँगा,
श्वास रुद्ध करने वाले,
इस शीत पवन से अड न सकूँगा।
मेरे, हाँ वे सब मेरे थे,
जिन से रूठ चला आया हूँ।”
वे नीचे छूटे सुदूर,
पर भूल नहीं उनको पाया हूँ।”
वह विश्वास भरी स्मिति निश्छल,
श्रद्धा-मुख पर झलक उठी थी।
सेवा कर-पल्लव में उसके,
कुछ करने को ललक उठी थी।
दे अवलंब, विकल साथी को,
कामायनी मधुर स्वर बोली,
“हम बढ दूर निकल आये,
अब करने का अवसर न ठिठोली।
दिशा-विकंपित, पल असीम है,
यह अनंत सा कुछ ऊपर है,
अनुभव-करते हो, बोलो क्या,
पदतल में, सचमुच भूधर है?
निराधार हैं किंतु ठहरना,
हम दोनों को आज यहीं है
नियति खेल देखूँ न, सुनो
अब इसका अन्य उपाय नहीं है।
झाँई लगती, वह तुमको,
ऊपर उठने को है कहती,
इस प्रतिकूल पवन धक्के को,
झोंक दूसरी ही आ सहती।
श्रांत पक्ष, कर नेत्र बंद बस,
विहग-युगल से आज हम रहें,
शून्य पवन बन पंख हमारे,
हमको दें आधारा, जम रहें।
घबराओ मत यह समतल है,
देखो तो, हम कहाँ आ गये”
मनु ने देखा आँख खोलकर,
जैसे कुछ त्राण पा गये।
ऊष्मा का अभिनव अनुभव था,
ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे,
दिवा-रात्रि के संधिकाल में,
ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।
ऋतुओं के स्तर हुये तिरोहित,
भू-मंडल रेखा विलीन-सी
निराधार उस महादेश में,
उदित सचेतनता नवीन-सी।
त्रिदिक विश्व, आलोक बिंदु भी,
तीन दिखाई पडे अलग व,
त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे मानो वे,
अनमिल थे किंतु सजग थे।
मनु ने पूछा, “कौन नये,
ग्रह ये हैं श्रद्धे मुझे बताओ?
मैं किस लोक बीच पहुँचा,
इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ”
“इस त्रिकोण के मध्य बिंदु,
तुम शक्ति विपुल क्षमता वाले ये,
एक-एक को स्थिर हो देखो,
इच्छा ज्ञान, क्रिया वाले ये।
वह देखो रागारुण है जो,
उषा के कंदुक सा सुंदर,
छायामय कमनीय कलेवर,
भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर।
शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की,
पारदर्शिनी सुघड पुतलियाँ,
चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों,
रूपवती रंगीन तितलियाँ
इस कुसुमाकर के कानन के,
अरुण पराग पटल छाया में,
इठलातीं सोतीं जगतीं ये,
अपनी भाव भरी माया में।
वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी,
कोमल अँगडाई है लेती,
मादकता की लहर उठाकर,
अपना अंबर तर कर देती।
आलिगंन सी मधुर प्रेरणा,
छू लेती, फिर सिहरन बनती,
नव-अलंबुषा की व्रीडा-सी,
खुल जाती है, फिर जा मुँदती।
यह जीवन की मध्य-भूमि,
है रस धारा से सिंचित होती,
मधुर लालसा की लहरों से,
यह प्रवाहिका स्पंदित होती।
जिसके तट पर विद्युत-कण से।
मनोहारिणी आकृति वाले,
छायामय सुषमा में विह्वल,
विचर रहे सुंदर मतवाले।
सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र-से,
मधुर गंध उठती रस-भीनी,
वाष्प अदृश फुहारे इसमें,
छूट रहे, रस-बूँदे झीनी।
घूम रही है यहाँ चतुर्दिक,
चलचित्रों सी संसृति छाया,
जिस आलोक-विदु को घेरे,
वह बैठी मुसक्याती माया।
भाव चक्र यह चला रही है,
इच्छा की रथ-नाभि घूमती,
नवरस-भरी अराएँ अविरल,
चक्रवाल को चकित चूमतीं।
यहाँ मनोमय विश्व कर रहा,
रागारुण चेतन उपासना,
माया-राज्य यही परिपाटी,
पाश बिछा कर जीव फाँसना।
ये अशरीरी रूप, सुमन से,
केवल वर्ण गंध में फूले,
इन अप्सरियों की तानों के,
मचल रहे हैं सुंदर झूले।
भाव-भूमिका इसी लोक की,
जननी है सब पुण्य-पाप की।
ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति,
बन गल ज्वाला से मधुर ताप की।
नियममयी उलझन लतिका का,
भाव विटपि से आकर मिलना,
जीवन-वन की बनी समस्या,
आशा नभकुसुमों का खिलना।
रहस्य / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
चिर-वसंत का यह उदगम है,
पतझर होता एक ओर है,
अमृत हलाहल यहाँ मिले है,
सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।”
“सुदंर यह तुमने दिखलाया,
किंतु कौन वह श्याम देश है?
कामायनी बताओ उसमें,
क्या रहस्य रहता विशेष है”
“मनु यह श्यामल कर्म लोक है,
धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा
सघन हो रहा अविज्ञात
यह देश, मलिन है धूम-धार सा।
कर्म-चक्र-सा घूम रहा है,
यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा,
सब के पीछे लगी हुई है,
कोई व्याकुल नयी एषणा।
श्रममय कोलाहल, पीडनमय,
विकल प्रवर्तन महायंत्र का,
क्षण भर भी विश्राम नहीं है,
प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का।
भाव-राज्य के सकल मानसिक,
सुख यों दुख में बदल रहे हैं,
हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये,
अकडे अणु टहल रहे हैं।
ये भौतिक संदेह कुछ करके,
जीवित रहना यहाँ चाहते,
भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर,
दंड बने हैं, सब कराहते।
करते हैं, संतोष नहीं है,
जैसे कशाघात-प्रेरित से-
प्रति क्षण करते ही जाते हैं,
भीति-विवश ये सब कंपित से।
नियाते चलाती कर्म-चक्र यह,
तृष्णा-जनित ममत्व-वासना,
पाणि-पादमय पंचभूत की,
यहाँ हो रही है उपासना।
यहाँ सतत संघर्ष विफलता,
कोलाहल का यहाँ राज है,
अंधकार में दौड लग रही
मतवाला यह सब समाज है।
स्थूल हो रहे रूप बनाकर,
कर्मों की भीषण परिणति है,
आकांक्षा की तीव्र पिपाशा
ममता की यह निर्मम गति है।
यहाँ शासनादेश घोषणा,
विजयों की हुंकार सुनाती,
यहाँ भूख से विकल दलित को,
पदतल में फिर फिर गिरवाती।
यहाँ लिये दायित्व कर्म का,
उन्नति करने के मतवाले,
जल-जला कर फूट पड रहे
ढुल कर बहने वाले छाले।
यहाँ राशिकृत विपुल विभव सब,
मरीचिका-से दीख पड रहे,
भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे,
विलीन, ये पुनः गड रहे।
बडी लालसा यहाँ सुयश की,
अपराधों की स्वीकृति बनती,
अंध प्रेरणा से परिचालित,
कर्ता में करते निज गिनती।
प्राण तत्त्व की सघन साधना जल,
हिम उपल यहाँ है बनता,
पयासे घायल हो जल जाते,
मर-मर कर जीते ही बनता
यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ,
जला-जला कर नित्य ढालती,
चोट सहन कर रुकने वाली धातु,
न जिसको मृत्यु सालती।
वर्षा के घन नाद कर रहे,
तट-कूलों को सहज गिराती,
प्लावित करती वन कुंजों को,
लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।”
“बस अब ओर न इसे दिखा तू,
यह अति भीषण कर्म जगत है,
श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है,
जैसे पुंजीभूत रजत है।”
“प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है,
सुख-दुख से है उदासीनत,
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है,
बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते,
ये अणु तर्क-युक्ति से,
ये निस्संग, किंतु कर लेते,
कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।
यहाँ प्राप्य मिलता है केवल,
तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती,
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी,
प्यास लगी है ओस चाटती।
न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये,
प्राणी चमकीले लगते,
इस निदाघ मरु में, सूखे से,
स्रोतों के तट जैसे जगते।
मनोभाव से काय-कर्म के
समतोलन में दत्तचित्त से,
ये निस्पृह न्यायासन वाले,
चूक न सकते तनिक वित्त से
अपना परिमित पात्र लिये,
ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से,
माँग रहे हैं जीवन का रस,
बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।
यहाँ विभाजन धर्म-तुला का,
अधिकारों की व्याख्या करता,
यह निरीह, पर कुछ पाकर ही,
अपनी ढीली साँसे भरता।
उत्तमता इनका निजस्व है,
अंबुज वाले सर सा देखो,
जीवन-मधु एकत्र कर रही,
उन सखियों सा बस लेखो।
यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना,
अंधकार को भेद निखरती,
यह अनवस्था, युगल मिले से,
विकल व्यवस्था सदा बिखरती।
देखो वे सब सौम्य बने हैं,
किंतु सशंकित हैं दोषों से,
वे संकेत दंभ के चलते,
भू-वालन मिस परितोषों से।
यहाँ अछूत रहा जीवन रस,
छूओ मत, संचित होने दो।
बस इतना ही भाग तुम्हारा,
तृष्णा मृषा, वंचित होने दो।
सामंजस्य चले करने ये,
किंतु विषमता फैलाते हैं,
मूल-स्वत्व कुछ और बताते,
इच्छाओं को झुठलाते हैं।
स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से,
शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते,
ये विज्ञान भरे अनुशासन,
क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते।
यही त्रिपुर है देखा तुमने,
तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने,
अपने केन्द्र बने दुख-सुख में,
भिन्न हुए हैं ये सब कितने
ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
एक दूसरे से न मिल सके,
यह विडंबना है जीवन की।”
महाज्योति-रेख सी बनकर,
श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें,
वे संबद्ध हुए फर सहसा,
जाग उठी थी ज्वाला जिनमें।
नीचे ऊपर लचकीली वह,
विषम वायु में धधक रही सी,
महाशून्य में ज्वाल सुनहली,
सबको कहती ‘नहीं नहीं सी।
शक्ति-तंरग प्रलय-पावक का,
उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा।
चितिमय चिता धधकती अविरल,
महाकाल का विषय नृत्य था,
विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर,
करता अपना विषम कृत्य था,
स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो,
इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे,
दिव्य अनाहत पर-निनाद में,
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।
पतझर होता एक ओर है,
अमृत हलाहल यहाँ मिले है,
सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।”
“सुदंर यह तुमने दिखलाया,
किंतु कौन वह श्याम देश है?
कामायनी बताओ उसमें,
क्या रहस्य रहता विशेष है”
“मनु यह श्यामल कर्म लोक है,
धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा
सघन हो रहा अविज्ञात
यह देश, मलिन है धूम-धार सा।
कर्म-चक्र-सा घूम रहा है,
यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा,
सब के पीछे लगी हुई है,
कोई व्याकुल नयी एषणा।
श्रममय कोलाहल, पीडनमय,
विकल प्रवर्तन महायंत्र का,
क्षण भर भी विश्राम नहीं है,
प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का।
भाव-राज्य के सकल मानसिक,
सुख यों दुख में बदल रहे हैं,
हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये,
अकडे अणु टहल रहे हैं।
ये भौतिक संदेह कुछ करके,
जीवित रहना यहाँ चाहते,
भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर,
दंड बने हैं, सब कराहते।
करते हैं, संतोष नहीं है,
जैसे कशाघात-प्रेरित से-
प्रति क्षण करते ही जाते हैं,
भीति-विवश ये सब कंपित से।
नियाते चलाती कर्म-चक्र यह,
तृष्णा-जनित ममत्व-वासना,
पाणि-पादमय पंचभूत की,
यहाँ हो रही है उपासना।
यहाँ सतत संघर्ष विफलता,
कोलाहल का यहाँ राज है,
अंधकार में दौड लग रही
मतवाला यह सब समाज है।
स्थूल हो रहे रूप बनाकर,
कर्मों की भीषण परिणति है,
आकांक्षा की तीव्र पिपाशा
ममता की यह निर्मम गति है।
यहाँ शासनादेश घोषणा,
विजयों की हुंकार सुनाती,
यहाँ भूख से विकल दलित को,
पदतल में फिर फिर गिरवाती।
यहाँ लिये दायित्व कर्म का,
उन्नति करने के मतवाले,
जल-जला कर फूट पड रहे
ढुल कर बहने वाले छाले।
यहाँ राशिकृत विपुल विभव सब,
मरीचिका-से दीख पड रहे,
भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे,
विलीन, ये पुनः गड रहे।
बडी लालसा यहाँ सुयश की,
अपराधों की स्वीकृति बनती,
अंध प्रेरणा से परिचालित,
कर्ता में करते निज गिनती।
प्राण तत्त्व की सघन साधना जल,
हिम उपल यहाँ है बनता,
पयासे घायल हो जल जाते,
मर-मर कर जीते ही बनता
यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ,
जला-जला कर नित्य ढालती,
चोट सहन कर रुकने वाली धातु,
न जिसको मृत्यु सालती।
वर्षा के घन नाद कर रहे,
तट-कूलों को सहज गिराती,
प्लावित करती वन कुंजों को,
लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।”
“बस अब ओर न इसे दिखा तू,
यह अति भीषण कर्म जगत है,
श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है,
जैसे पुंजीभूत रजत है।”
“प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है,
सुख-दुख से है उदासीनत,
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है,
बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते,
ये अणु तर्क-युक्ति से,
ये निस्संग, किंतु कर लेते,
कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।
यहाँ प्राप्य मिलता है केवल,
तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती,
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी,
प्यास लगी है ओस चाटती।
न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये,
प्राणी चमकीले लगते,
इस निदाघ मरु में, सूखे से,
स्रोतों के तट जैसे जगते।
मनोभाव से काय-कर्म के
समतोलन में दत्तचित्त से,
ये निस्पृह न्यायासन वाले,
चूक न सकते तनिक वित्त से
अपना परिमित पात्र लिये,
ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से,
माँग रहे हैं जीवन का रस,
बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।
यहाँ विभाजन धर्म-तुला का,
अधिकारों की व्याख्या करता,
यह निरीह, पर कुछ पाकर ही,
अपनी ढीली साँसे भरता।
उत्तमता इनका निजस्व है,
अंबुज वाले सर सा देखो,
जीवन-मधु एकत्र कर रही,
उन सखियों सा बस लेखो।
यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना,
अंधकार को भेद निखरती,
यह अनवस्था, युगल मिले से,
विकल व्यवस्था सदा बिखरती।
देखो वे सब सौम्य बने हैं,
किंतु सशंकित हैं दोषों से,
वे संकेत दंभ के चलते,
भू-वालन मिस परितोषों से।
यहाँ अछूत रहा जीवन रस,
छूओ मत, संचित होने दो।
बस इतना ही भाग तुम्हारा,
तृष्णा मृषा, वंचित होने दो।
सामंजस्य चले करने ये,
किंतु विषमता फैलाते हैं,
मूल-स्वत्व कुछ और बताते,
इच्छाओं को झुठलाते हैं।
स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से,
शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते,
ये विज्ञान भरे अनुशासन,
क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते।
यही त्रिपुर है देखा तुमने,
तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने,
अपने केन्द्र बने दुख-सुख में,
भिन्न हुए हैं ये सब कितने
ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
एक दूसरे से न मिल सके,
यह विडंबना है जीवन की।”
महाज्योति-रेख सी बनकर,
श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें,
वे संबद्ध हुए फर सहसा,
जाग उठी थी ज्वाला जिनमें।
नीचे ऊपर लचकीली वह,
विषम वायु में धधक रही सी,
महाशून्य में ज्वाल सुनहली,
सबको कहती ‘नहीं नहीं सी।
शक्ति-तंरग प्रलय-पावक का,
उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा।
चितिमय चिता धधकती अविरल,
महाकाल का विषय नृत्य था,
विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर,
करता अपना विषम कृत्य था,
स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो,
इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे,
दिव्य अनाहत पर-निनाद में,
श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।
आनंद / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
चलता था-धीरे-धीरे
वह एक यात्रियों का दल,
सरिता के रम्य पुलिन में
गिरिपथ से, ले निज संबल।
या सोम लता से आवृत वृष
धवल, धर्म का प्रतिनिधि,
घंटा बजता तालों में
उसकी थी मंथर गति-विधि।
वृष-रज्जु वाम कर में था
दक्षिण त्रिशूल से शोभित,
मानव था साथ उसी के
मुख पर था तेज़ अपरिमित।
केहरि-किशोर से अभिनव
अवयव प्रस्फुटित हुए थे,
यौवन गम्भीर हुआ था
जिसमें कुछ भाव नये थे।
चल रही इड़ा भी वृष के
दूसरे पार्श्व में नीरव,
गैरिक-वसना संध्या सी
जिसके चुप थे सब कलरव।
उल्लास रहा युवकों का
शिशु गण का था मृदु कलकल।
महिला-मंगल गानों से
मुखरित था वह यात्री दल।
चमरों पर बोझ लदे थे
वे चलते थे मिल आविरल,
कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर
अपने ही बने कुतूहल।
माताएँ पकडे उनको
बातें थीं करती जातीं,
‘हम कहाँ चल रहे’ यह सब
उनको विधिवत समझातीं।
कह रहा एक था” तू तो
कब से ही सुना रही है
अब आ पहुँची लो देखो
आगे वह भूमि यही है।
पर बढती ही चलती है
रूकने का नाम नहीं है,
वह तीर्थ कहाँ है कह तो
जिसके हित दौड़ रही है।”
“वह अगला समतल जिस पर
है देवदारू का कानन,
घन अपनी प्याली भरते ले
जिसके दल से हिमकन।
हाँ इसी ढालवें को जब बस
सहज उतर जावें हम,
फिर सन्मुख तीर्थ मिलेगा
वह अति उज्ज्वल पावनतम”
वह इड़ा समीप पहुँच कर
बोला उसको रूकने को,
बालक था, मचल गया था
कुछ और कथा सुनने को।
वह अपलक लोचन अपने
पादाग्र विलोकन करती,
पथ-प्रदर्शिका-सी चलती
धीरे-धीरे डग भरती।
बोली, “हम जहाँ चले हैं
वह है जगती का पावन
साधना प्रदेश किसी का
शीतल अति शांत तपोवन।”
“कैसा? क्यों शांत तपोवन?
विस्तृत क्यों न बताती”
बालक ने कहा इडा से
वह बोली कुछ सकुचाती
“सुनती हूँ एक मनस्वी था
वहाँ एक दिन आया,
वह जगती की ज्वाला से
अति-विकल रहा झुलसाया।
उसकी वह जलन भयानक
फैली गिरि अंचल में फिर,
दावाग्नि प्रखर लपटों ने
कर लिया सघन बन अस्थिर।
थी अर्धांगिनी उसी की
जो उसे खोजती आयी,
यह दशा देख, करूणा की
वर्षा दृग में भर लायी।
वरदान बने फिर उसके आँसू,
करते जग-मंगल,
सब ताप शांत होकर,
बन हो गया हरित, सुख शीतल।
गिरि-निर्झर चले उछलते
छायी फिर हरियाली,
सूखे तरू कुछ मुसकराये
फूटी पल्लव में लाली।
वे युगल वहीं अब बैठे
संसृति की सेवा करते,
संतोष और सुख देकर
सबकी दुख ज्वाला हरते।
हैं वहाँ महाह्नद निर्मल
जो मन की प्यास बुझाता,
मानस उसको कहते हैं
सुख पाता जो है जाता।
“तो यह वृष क्यों तू यों ही
वैसे ही चला रही है,
क्यों बैठ न जाती इस पर
अपने को थका रही है?”
“सारस्वत-नगर-निवासी
हम आये यात्रा करने,
यह व्यर्थ, रिक्त-जीवन-घट
पीयूष-सलिल से भरने।
इस वृषभ धर्म-प्रतिनिधि को
उत्सर्ग करेंगे जाकर,
चिर मुक्त रहे यह निर्भय
स्वच्छंद सदा सुख पाकर।”
सब सम्हल गये थे
आगे थी कुछ नीची उतराई,
जिस समतल घाटी में,
वह थी हरियाली से छाई।
श्रम, ताप और पथ पीडा
क्षण भर में थे अंतर्हित,
सामने विराट धवल-नग
अपनी महिमा से विलसित।
उसकी तलहटी मनोहर
श्यामल तृण-वीरूध वाली,
नव-कुंज, गुहा-गृह सुंदर
ह्रद से भर रही निराली।
वह मंजरियों का कानन
कुछ अरूण पीत हरियाली,
प्रति-पर्व सुमन-सुंकुल थे
छिप गई उन्हीं में डाली।
यात्री दल ने रूक देखा
मानस का दृश्य निराला,
खग-मृग को अति सुखदायक
छोटा-सा जगत उजाला।
मरकत की वेदी पर ज्यों
रक्खा हीरे का पानी,
छोटा सा मुकुर प्रकृति
या सोयी राका रानी।
दिनकर गिरि के पीछे अब
हिमकर था चढा गगन में,
कैलास प्रदोष-प्रभा में स्थिर
बैठा किसी लगन में।
संध्या समीप आयी थी
उस सर के, वल्कल वसना,
तारों से अलक गुँथी थी
पहने कदंब की रशना।
खग कुल किलकार रहे थे,
कलहंस कर रहे कलरव,
किन्नरियाँ बनी प्रतिध्वनि
लेती थीं तानें अभिनव।
मनु बैठे ध्यान-निरत थे
उस निर्मल मानस-तट में,
सुमनों की अंजलि भर कर
श्रद्धा थी खडी निकट में।
श्रद्धा ने सुमन बिखेरा
शत-शत मधुपों का गुंजन,
भर उठा मनोहर नभ में
मनु तन्मय बैठे उन्मन।
पहचान लिया था सबने
फिर कैसे अब वे रूकते,
वह देव-द्वंद्व द्युतिमय था
फिर क्यों न प्रणति में झुकते।
वह एक यात्रियों का दल,
सरिता के रम्य पुलिन में
गिरिपथ से, ले निज संबल।
या सोम लता से आवृत वृष
धवल, धर्म का प्रतिनिधि,
घंटा बजता तालों में
उसकी थी मंथर गति-विधि।
वृष-रज्जु वाम कर में था
दक्षिण त्रिशूल से शोभित,
मानव था साथ उसी के
मुख पर था तेज़ अपरिमित।
केहरि-किशोर से अभिनव
अवयव प्रस्फुटित हुए थे,
यौवन गम्भीर हुआ था
जिसमें कुछ भाव नये थे।
चल रही इड़ा भी वृष के
दूसरे पार्श्व में नीरव,
गैरिक-वसना संध्या सी
जिसके चुप थे सब कलरव।
उल्लास रहा युवकों का
शिशु गण का था मृदु कलकल।
महिला-मंगल गानों से
मुखरित था वह यात्री दल।
चमरों पर बोझ लदे थे
वे चलते थे मिल आविरल,
कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर
अपने ही बने कुतूहल।
माताएँ पकडे उनको
बातें थीं करती जातीं,
‘हम कहाँ चल रहे’ यह सब
उनको विधिवत समझातीं।
कह रहा एक था” तू तो
कब से ही सुना रही है
अब आ पहुँची लो देखो
आगे वह भूमि यही है।
पर बढती ही चलती है
रूकने का नाम नहीं है,
वह तीर्थ कहाँ है कह तो
जिसके हित दौड़ रही है।”
“वह अगला समतल जिस पर
है देवदारू का कानन,
घन अपनी प्याली भरते ले
जिसके दल से हिमकन।
हाँ इसी ढालवें को जब बस
सहज उतर जावें हम,
फिर सन्मुख तीर्थ मिलेगा
वह अति उज्ज्वल पावनतम”
वह इड़ा समीप पहुँच कर
बोला उसको रूकने को,
बालक था, मचल गया था
कुछ और कथा सुनने को।
वह अपलक लोचन अपने
पादाग्र विलोकन करती,
पथ-प्रदर्शिका-सी चलती
धीरे-धीरे डग भरती।
बोली, “हम जहाँ चले हैं
वह है जगती का पावन
साधना प्रदेश किसी का
शीतल अति शांत तपोवन।”
“कैसा? क्यों शांत तपोवन?
विस्तृत क्यों न बताती”
बालक ने कहा इडा से
वह बोली कुछ सकुचाती
“सुनती हूँ एक मनस्वी था
वहाँ एक दिन आया,
वह जगती की ज्वाला से
अति-विकल रहा झुलसाया।
उसकी वह जलन भयानक
फैली गिरि अंचल में फिर,
दावाग्नि प्रखर लपटों ने
कर लिया सघन बन अस्थिर।
थी अर्धांगिनी उसी की
जो उसे खोजती आयी,
यह दशा देख, करूणा की
वर्षा दृग में भर लायी।
वरदान बने फिर उसके आँसू,
करते जग-मंगल,
सब ताप शांत होकर,
बन हो गया हरित, सुख शीतल।
गिरि-निर्झर चले उछलते
छायी फिर हरियाली,
सूखे तरू कुछ मुसकराये
फूटी पल्लव में लाली।
वे युगल वहीं अब बैठे
संसृति की सेवा करते,
संतोष और सुख देकर
सबकी दुख ज्वाला हरते।
हैं वहाँ महाह्नद निर्मल
जो मन की प्यास बुझाता,
मानस उसको कहते हैं
सुख पाता जो है जाता।
“तो यह वृष क्यों तू यों ही
वैसे ही चला रही है,
क्यों बैठ न जाती इस पर
अपने को थका रही है?”
“सारस्वत-नगर-निवासी
हम आये यात्रा करने,
यह व्यर्थ, रिक्त-जीवन-घट
पीयूष-सलिल से भरने।
इस वृषभ धर्म-प्रतिनिधि को
उत्सर्ग करेंगे जाकर,
चिर मुक्त रहे यह निर्भय
स्वच्छंद सदा सुख पाकर।”
सब सम्हल गये थे
आगे थी कुछ नीची उतराई,
जिस समतल घाटी में,
वह थी हरियाली से छाई।
श्रम, ताप और पथ पीडा
क्षण भर में थे अंतर्हित,
सामने विराट धवल-नग
अपनी महिमा से विलसित।
उसकी तलहटी मनोहर
श्यामल तृण-वीरूध वाली,
नव-कुंज, गुहा-गृह सुंदर
ह्रद से भर रही निराली।
वह मंजरियों का कानन
कुछ अरूण पीत हरियाली,
प्रति-पर्व सुमन-सुंकुल थे
छिप गई उन्हीं में डाली।
यात्री दल ने रूक देखा
मानस का दृश्य निराला,
खग-मृग को अति सुखदायक
छोटा-सा जगत उजाला।
मरकत की वेदी पर ज्यों
रक्खा हीरे का पानी,
छोटा सा मुकुर प्रकृति
या सोयी राका रानी।
दिनकर गिरि के पीछे अब
हिमकर था चढा गगन में,
कैलास प्रदोष-प्रभा में स्थिर
बैठा किसी लगन में।
संध्या समीप आयी थी
उस सर के, वल्कल वसना,
तारों से अलक गुँथी थी
पहने कदंब की रशना।
खग कुल किलकार रहे थे,
कलहंस कर रहे कलरव,
किन्नरियाँ बनी प्रतिध्वनि
लेती थीं तानें अभिनव।
मनु बैठे ध्यान-निरत थे
उस निर्मल मानस-तट में,
सुमनों की अंजलि भर कर
श्रद्धा थी खडी निकट में।
श्रद्धा ने सुमन बिखेरा
शत-शत मधुपों का गुंजन,
भर उठा मनोहर नभ में
मनु तन्मय बैठे उन्मन।
पहचान लिया था सबने
फिर कैसे अब वे रूकते,
वह देव-द्वंद्व द्युतिमय था
फिर क्यों न प्रणति में झुकते।
आनंद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
तब वृषभ सोमवाही भी
अपनी घंटा-ध्वनि करता,
बढ चला इडा के पीछे
मानव भी था डग भरता।
हाँ इडा आज भूली थी
पर क्षमा न चाह रही थी,
वह दृश्य देखने को निज
दृग-युगल सराह रही थी
चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित
वह चेतन-पुरूष-पुरातन,
निज-शक्ति-तरंगायित था
आनंद-अंबु-निधि शोभन।
भर रहा अंक श्रद्धा का
मानव उसको अपना कर,
था इडा-शीश चरणों पर
वह पुलक भरी गदगद स्वर
बोली-“मैं धन्य हुई जो
यहाँ भूलकर आयी,
हे देवी तुम्हारी ममता
बस मुझे खींचती लायी।
भगवति, समझी मैं सचमुच
कुछ भी न समझ थी मुझको।
सब को ही भुला रही थी
अभ्यास यही था मुझको।
हम एक कुटुम्ब बनाकर
यात्रा करने हैं आये,
सुन कर यह दिव्य-तपोवन
जिसमें सब अघ छुट जाये।”
मनु ने कुछ-कुछ मुस्करा कर
कैलास ओर दिखालाया,
बोले- “देखो कि यहाँ
कोई भी नहीं पराया।
हम अन्य न और कुटुंबी
हम केवल एक हमीं हैं,
तुम सब मेरे अवयव हो
जिसमें कुछ नहीं कमीं है।
शापित न यहाँ है कोई
तापित पापी न यहाँ है,
जीवन-वसुधा समतल है
समरस है जो कि जहाँ है।
चेतन समुद्र में जीवन
लहरों सा बिखर पडा है,
कुछ छाप व्यक्तिगत,
अपना निर्मित आकार खडा है।
इस ज्योत्स्ना के जलनिधि में
बुदबुद सा रूप बनाये,
नक्षत्र दिखाई देते
अपनी आभा चमकाये।
वैसे अभेद-सागर में
प्राणों का सृष्टि क्रम है,
सब में घुल मिल कर रसमय
रहता यह भाव चरम है।
अपने दुख सुख से पुलकित
यह मूर्त-विश्व सचराचर
चिति का विराट-वपु मंगल
यह सत्य सतत चित सुंदर।
सबकी सेवा न परायी
वह अपनी सुख-संसृति है,
अपना ही अणु अणु कण-कण
द्वयता ही तो विस्मृति है।
मैं की मेरी चेतनता
सबको ही स्पर्श किये सी,
सब भिन्न परिस्थितियों की है
मादक घूँट पिये सी।
जग ले ऊषा के दृग में
सो ले निशी की पलकों में,
हाँ स्वप्न देख ले सुदंर
उलझन वाली अलकों में
चेतन का साक्षी मानव
हो निर्विकार हंसता सा,
मानस के मधुर मिलन में
गहरे गहरे धँसता सा।
सब भेदभाव भुलवा कर
दुख-सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे यह मैं हूँ,
यह विश्व नीड बन जाता”
श्रद्धा के मधु-अधरों की
छोटी-छोटी रेखायें,
रागारूण किरण कला सी
विकसीं बन स्मिति लेखायें।
वह कामायनी जगत की
मंगल-कामना-अकेली,
थी-ज्योतिष्मती प्रफुल्लित
मानस तट की वन बेली।
वह विश्व-चेतना पुलकित थी
पूर्ण-काम की प्रतिमा,
जैसे गंभीर महाह्नद हो
भरा विमल जल महिमा।
जिस मुरली के निस्वन से
यह शून्य रागमय होता,
वह कामायनी विहँसती अग
जग था मुखरित होता।
क्षण-भर में सब परिवर्तित
अणु-अणु थे विश्व-कमल के,
पिगल-पराग से मचले
आनंद-सुधा रस छलके।
अति मधुर गंधवह बहता
परिमल बूँदों से सिंचित,
सुख-स्पर्श कमल-केसर का
कर आया रज से रंजित।
जैसे असंख्य मुकुलों का
मादन-विकास कर आया,
उनके अछूत अधरों का
कितना चुंबन भर लाया।
रूक-रूक कर कुछ इठलाता
जैसे कुछ हो वह भूला,
नव कनक-कुसुम-रज धूसर
मकरंद-जलद-सा फूला।
जैसे वनलक्ष्मी ने ही
बिखराया हो केसर-रज,
या हेमकूट हिम जल में
झलकाता परछाई निज।
संसृति के मधुर मिलन के
उच्छवास बना कर निज दल,
चल पडे गगन-आँगन में
कुछ गाते अभिनव मंगल।
वल्लरियाँ नृत्य निरत थीं,
बिखरी सुगंध की लहरें,
फिर वेणु रंध्र से उठ कर
मूर्च्छना कहाँ अब ठहरे।
गूँजते मधुर नूपुर से
मदमाते होकर मधुकर,
वाणी की वीणा-धवनि-सी
भर उठी शून्य में झिल कर।
उन्मद माधव मलयानिल
दौडे सब गिरते-पडते,
परिमल से चली नहा कर
काकली, सुमन थे झडते।
सिकुडन कौशेय वसन की थी
विश्व-सुन्दरी तन पर,
या मादन मृदुतम कंपन
छायी संपूर्ण सृजन पर।
सुख-सहचर दुख-विदुषक
परिहास पूर्ण कर अभिनय,
सब की विस्मृति के पट में
छिप बैठा था अब निर्भय।
थे डाल डाल में मधुमय
मृदु मुकुल बने झालर से,
रस भार प्रफुल्ल सुमन
सब धीरे-धीरे से बरसे।
हिम खंड रश्मि मंडित हो
मणि-दीप प्रकाश दिखता,
जिनसे समीर टकरा कर
अति मधुर मृदंग बजाता।
संगीत मनोहर उठता
मुरली बजती जीवन की,
सकेंत कामना बन कर
बतलाती दिशा मिलन की।
रस्मियाँ बनीं अप्सरियाँ
अतंरिक्ष में नचती थीं,
परिमल का कन-कन लेकर
निज रंगमंच रचती थी।
मांसल-सी आज हुई थी
हिमवती प्रकृति पाषाणी,
उस लास-रास में विह्वल
थी हँसती सी कल्याणी।
वह चंद्र किरीट रजत-नग
स्पंदित-सा पुरष पुरातन,
देखता मानसि गौरी
लहरों का कोमल नत्तर्न
प्रतिफलित हुई सब आँखें
उस प्रेम-ज्योति-विमला से,
सब पहचाने से लगते
अपनी ही एक कला से।
समरस थे जड़ या चेतन
सुन्दर साकार बना था,
चेतनता एक विलसती
आनंद अखंड घना था।
अपनी घंटा-ध्वनि करता,
बढ चला इडा के पीछे
मानव भी था डग भरता।
हाँ इडा आज भूली थी
पर क्षमा न चाह रही थी,
वह दृश्य देखने को निज
दृग-युगल सराह रही थी
चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित
वह चेतन-पुरूष-पुरातन,
निज-शक्ति-तरंगायित था
आनंद-अंबु-निधि शोभन।
भर रहा अंक श्रद्धा का
मानव उसको अपना कर,
था इडा-शीश चरणों पर
वह पुलक भरी गदगद स्वर
बोली-“मैं धन्य हुई जो
यहाँ भूलकर आयी,
हे देवी तुम्हारी ममता
बस मुझे खींचती लायी।
भगवति, समझी मैं सचमुच
कुछ भी न समझ थी मुझको।
सब को ही भुला रही थी
अभ्यास यही था मुझको।
हम एक कुटुम्ब बनाकर
यात्रा करने हैं आये,
सुन कर यह दिव्य-तपोवन
जिसमें सब अघ छुट जाये।”
मनु ने कुछ-कुछ मुस्करा कर
कैलास ओर दिखालाया,
बोले- “देखो कि यहाँ
कोई भी नहीं पराया।
हम अन्य न और कुटुंबी
हम केवल एक हमीं हैं,
तुम सब मेरे अवयव हो
जिसमें कुछ नहीं कमीं है।
शापित न यहाँ है कोई
तापित पापी न यहाँ है,
जीवन-वसुधा समतल है
समरस है जो कि जहाँ है।
चेतन समुद्र में जीवन
लहरों सा बिखर पडा है,
कुछ छाप व्यक्तिगत,
अपना निर्मित आकार खडा है।
इस ज्योत्स्ना के जलनिधि में
बुदबुद सा रूप बनाये,
नक्षत्र दिखाई देते
अपनी आभा चमकाये।
वैसे अभेद-सागर में
प्राणों का सृष्टि क्रम है,
सब में घुल मिल कर रसमय
रहता यह भाव चरम है।
अपने दुख सुख से पुलकित
यह मूर्त-विश्व सचराचर
चिति का विराट-वपु मंगल
यह सत्य सतत चित सुंदर।
सबकी सेवा न परायी
वह अपनी सुख-संसृति है,
अपना ही अणु अणु कण-कण
द्वयता ही तो विस्मृति है।
मैं की मेरी चेतनता
सबको ही स्पर्श किये सी,
सब भिन्न परिस्थितियों की है
मादक घूँट पिये सी।
जग ले ऊषा के दृग में
सो ले निशी की पलकों में,
हाँ स्वप्न देख ले सुदंर
उलझन वाली अलकों में
चेतन का साक्षी मानव
हो निर्विकार हंसता सा,
मानस के मधुर मिलन में
गहरे गहरे धँसता सा।
सब भेदभाव भुलवा कर
दुख-सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे यह मैं हूँ,
यह विश्व नीड बन जाता”
श्रद्धा के मधु-अधरों की
छोटी-छोटी रेखायें,
रागारूण किरण कला सी
विकसीं बन स्मिति लेखायें।
वह कामायनी जगत की
मंगल-कामना-अकेली,
थी-ज्योतिष्मती प्रफुल्लित
मानस तट की वन बेली।
वह विश्व-चेतना पुलकित थी
पूर्ण-काम की प्रतिमा,
जैसे गंभीर महाह्नद हो
भरा विमल जल महिमा।
जिस मुरली के निस्वन से
यह शून्य रागमय होता,
वह कामायनी विहँसती अग
जग था मुखरित होता।
क्षण-भर में सब परिवर्तित
अणु-अणु थे विश्व-कमल के,
पिगल-पराग से मचले
आनंद-सुधा रस छलके।
अति मधुर गंधवह बहता
परिमल बूँदों से सिंचित,
सुख-स्पर्श कमल-केसर का
कर आया रज से रंजित।
जैसे असंख्य मुकुलों का
मादन-विकास कर आया,
उनके अछूत अधरों का
कितना चुंबन भर लाया।
रूक-रूक कर कुछ इठलाता
जैसे कुछ हो वह भूला,
नव कनक-कुसुम-रज धूसर
मकरंद-जलद-सा फूला।
जैसे वनलक्ष्मी ने ही
बिखराया हो केसर-रज,
या हेमकूट हिम जल में
झलकाता परछाई निज।
संसृति के मधुर मिलन के
उच्छवास बना कर निज दल,
चल पडे गगन-आँगन में
कुछ गाते अभिनव मंगल।
वल्लरियाँ नृत्य निरत थीं,
बिखरी सुगंध की लहरें,
फिर वेणु रंध्र से उठ कर
मूर्च्छना कहाँ अब ठहरे।
गूँजते मधुर नूपुर से
मदमाते होकर मधुकर,
वाणी की वीणा-धवनि-सी
भर उठी शून्य में झिल कर।
उन्मद माधव मलयानिल
दौडे सब गिरते-पडते,
परिमल से चली नहा कर
काकली, सुमन थे झडते।
सिकुडन कौशेय वसन की थी
विश्व-सुन्दरी तन पर,
या मादन मृदुतम कंपन
छायी संपूर्ण सृजन पर।
सुख-सहचर दुख-विदुषक
परिहास पूर्ण कर अभिनय,
सब की विस्मृति के पट में
छिप बैठा था अब निर्भय।
थे डाल डाल में मधुमय
मृदु मुकुल बने झालर से,
रस भार प्रफुल्ल सुमन
सब धीरे-धीरे से बरसे।
हिम खंड रश्मि मंडित हो
मणि-दीप प्रकाश दिखता,
जिनसे समीर टकरा कर
अति मधुर मृदंग बजाता।
संगीत मनोहर उठता
मुरली बजती जीवन की,
सकेंत कामना बन कर
बतलाती दिशा मिलन की।
रस्मियाँ बनीं अप्सरियाँ
अतंरिक्ष में नचती थीं,
परिमल का कन-कन लेकर
निज रंगमंच रचती थी।
मांसल-सी आज हुई थी
हिमवती प्रकृति पाषाणी,
उस लास-रास में विह्वल
थी हँसती सी कल्याणी।
वह चंद्र किरीट रजत-नग
स्पंदित-सा पुरष पुरातन,
देखता मानसि गौरी
लहरों का कोमल नत्तर्न
प्रतिफलित हुई सब आँखें
उस प्रेम-ज्योति-विमला से,
सब पहचाने से लगते
अपनी ही एक कला से।
समरस थे जड़ या चेतन
सुन्दर साकार बना था,
चेतनता एक विलसती
आनंद अखंड घना था।
निर्वेद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
उधर प्रभात हुआ प्राची में
मनु के मुद्रित-नयन खुले।
श्रद्धा का अवलंब मिला
फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,
मनु उठ बैठे गदगद होकर
बोले कुछ अनुराग भरे।
“श्रद्धा तू आ गयी भला तो-
पर क्या था मैं यहीं पडा’
वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका
बिखरी चारों ओर घृणा।
आँखें बंद कर लिया क्षोभ से
“दूर-दूर ले चल मुझको,
इस भयावने अधंकार में
खो दूँ कहीं न फिर तुझको।
हाथ पकड ले, चल सकता हूँ-
हाँ कि यही अवलंब मिले,
वह तू कौन? परे हट, श्रद्धे आ कि
हृदय का कुसुम खिले।”
श्रद्धा नीरव सिर सहलाती
आँखों में विश्वास भरे,
मानो कहती “तुम मेरे हो
अब क्यों कोई वृथा डरे?”
जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से
लगे बहुत धीरे कहने,
“ले चल इस छाया के बाहर
मुझको दे न यहाँ रहने।
मुक्त नील नभ के नीचे
या कहीं गुहा में रह लेंगे,
अरे झेलता ही आया हूँ-
जो आवेगा सह लेंगे”
“ठहरो कुछ तो बल आने दो
लिवा चलूँगी तुरंत तुम्हें,
इतने क्षण तक” श्रद्धा बोली-
“रहने देंगी क्या न हमें?”
इडा संकुचित उधर खडी थी
यह अधिकार न छीन सकी,
श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले
उनकी वाणी नहीं रुकी।
“जब जीवन में साध भरी थी
उच्छृंखल अनुरोध भरा,
अभिलाषायें भरी हृदय में
अपनेपन का बोध भरा।
मैं था, सुंदर कुसुमों की वह
सघन सुनहली छाया थी,
मलयानिल की लहर उठ रही
उल्लासों की माया थी।
उषा अरुण प्याला भर लाती
सुरभित छाया के नीचे
मेरा यौवन पीता सुख से
अलसाई आँखे मींचे।
ले मकरंद नया चू पडती
शरद-प्रात की शेफाली,
बिखराती सुख ही, संध्या की
सुंदर अलकें घुँघराली।
सहसा अधंकार की आँधी
उठी क्षितिज से वेग भरी,
हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी
उद्वेलित मानस लहरी।
व्यथित हृदय उस नीले नभ में
छाया पथ-सा खुला तभी,
अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति
कर दी तुमने देवि जभी।
दिव्य तुम्हारी अमर अमिट
छवि लगी खेलने रंग-रली,
नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-
निकष पर खिंची भली।
अरुणाचल मन मंदिर की वह
मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,
गी सिखाने स्नेह-मयी सी
सुंदरता की मृदु महिमा।
उस दिन तो हम जान सके थे
सुंदर किसको हैं कहते
तब पहचान सके, किसके हित
प्राणी यह दुख-सुख सहते।
जीवन कहता यौवन से
“कुछ देखा तूने मतवाले”
यौवन कहता साँस लिये
चल कुछ अपना संबल पाले”
हृदय बन रहा था सीपी सा
तुम स्वाती की बूँद बनी,
मानस-शतदल झूम उठा
जब तुम उसमें मकरंद बनीं।
तुमने इस सूखे पतझड में
भर दी हरियाली कितनी,
मैंने समझा मादकता है
तृप्ति बन गयी वह इतनी
विश्व, कि जिसमें दुख की
आँधी पीडा की लहरी उठती,
जिसमें जीवन मरण बना था
बुदबुद की माया नचती।
वही शांत उज्जवल मंगल सा
दिखता था विश्वास भरा,
वर्षा के कदंब कानन सा
सृष्टि-विभव हो उठा हरा।
भगवती वह पावन मधु-धारा
देख अमृत भी ललचाये,
वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से
जिसमें जीवन धुल जाये
संध्या अब ले जाती मुझसे
ताराओं की अकथ कथा,
नींद सहज ही ले लेती थी
सारे श्रमकी विकल व्यथा।
सकल कुतूहल और कल्पना
उन चरणों से उलझ पडी,
कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से
जीवन की वह धन्य घडी।
स्मिति मधुराका थी, शवासों से
पारिजात कानन खिलता,
गति मरंद-मथंर मलयज-सी
स्वर में वेणु कहाँ मिलता
श्वास-पवन पर चढ कर मेरे
दूरागत वंशी-रत्न-सी,
गूँज उठीं तुम, विश्व कुहर में
दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी
जीवन-जलनिधि के तल से
जो मुक्ता थे वे निकल पडे,
जग-मंगल-संगीत तुम्हारा
गाते मेरे रोम खडे।
आशा की आलोक-किरन से
कुछ मानस से ले मेरे,
लघु जलधर का सृजन हुआ था
जिसको शशिलेखा घेरे-
उस पर बिजली की माला-सी
झूम पडी तुम प्रभा भरी,
और जलद वह रिमझिम
बरसा मन-वनस्थली हुई हरी
तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया
विश्व खेल है खेल चलो,
तुमने मिलकर मुझे बताया
सबसे करते मेल चलो।
यह भी अपनी बिजली के से
विभ्रम से संकेत किया,
अपना मन है जिसको चाहा
तब इसको दे दान दिया।
तुम अज्रस वर्षा सुहाग की
और स्नेह की मधु-रजनी,
विर अतृप्ति जीवन यदि था
तो तुम उसमें संतोष बनी।
कितना है उपकार तुम्हारा
आशिररात मेरा प्रणय हुआ
आकितना आभारी हूँ, इतना
संवेदनमय हृदय हुआ।
किंतु अधम मैं समझ न पाया
उस मंगल की माया को,
और आज भी पकड रहा हूँ
हर्ष शोक की छाया को,
मेरा सब कुछ क्रोध मोह के
उपादान से गठित हुआ,
ऐसा ही अनुभव होता है
किरनों ने अब तक न छुआ।
शापित-सा मैं जीवन का यह
ले कंकाल भटकता हूँ,
उसी खोखलेपन में जैसे
कुछ खोजता अटकता हूँ।
अंध-तमस है, किंतु प्रकृति का
आकर्षण है खींच रहा,
सब पर, हाँ अपने पर भी
मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा।
नहीं पा सका हूँ मैं जैसे
जो तुम देना चाह रही,
क्षुद्र पात्र तुम उसमें कितनी
मधु-धारा हो ढाल रही।
सब बाहर होता जाता है
स्वगत उसे मैं कर न सका,
बुद्धि-तर्क के छिद्र हुए थे
हृदय हमारा भर न सका।
यह कुमार-मेरे जीवन का
उच्च अंश, कल्याण-कला
कितना बडा प्रलोभन मेरा
हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।
सुखी रहें, सब सुखी रहें बस
छोडो मुझ अपराधी को”
श्रद्धा देख रही चुप मनु के
भीतर उठती आँधी को।
दिन बीता रजनी भी आयी
तंद्रा निद्रा संग लिये,
इडा कुमार समीप पडी थी
मन की दबी उमंग लिये।
श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी सी
हाथों को उपधान किये,
पडी सोचती मन ही मन कुछ,
मनु चुप सब अभिशाप पिये-
सोच रहे थे, “जीवन सुख है?
ना, यह विकट पहेली है,
भाग अरे मनु इंद्रजाल से
कितनी व्यथा न झेली है?
यह प्रभात की स्वर्ण किरन सी
झिलमिल चंचल सी छाया,
श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे
यह मुख या कलुषित काया।
और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर
इनका क्या विश्वास करूँ,
प्रतिहिंसा प्रतिशोध दबा कर
मन ही मन चुपचाप मरूँ।
श्रद्धा के रहते यह संभव
नहीं कि कुछ कर पाऊँगा
तो फिर शांति मिलेगी मुझको
जहाँ खोजता जाऊँगा।”
जगे सभी जब नव प्रभात में
देखें तो मनु वहाँ नहीं,
‘पिता कहाँ’ कह खोज रहा था
यह कुमार अब शांत नहीं।
इडा आज अपने को सबसे
अपराधी है समझ रही,
कामायनी मौन बैठी सी
अपने में ही उलझ रही।
मनु के मुद्रित-नयन खुले।
श्रद्धा का अवलंब मिला
फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,
मनु उठ बैठे गदगद होकर
बोले कुछ अनुराग भरे।
“श्रद्धा तू आ गयी भला तो-
पर क्या था मैं यहीं पडा’
वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका
बिखरी चारों ओर घृणा।
आँखें बंद कर लिया क्षोभ से
“दूर-दूर ले चल मुझको,
इस भयावने अधंकार में
खो दूँ कहीं न फिर तुझको।
हाथ पकड ले, चल सकता हूँ-
हाँ कि यही अवलंब मिले,
वह तू कौन? परे हट, श्रद्धे आ कि
हृदय का कुसुम खिले।”
श्रद्धा नीरव सिर सहलाती
आँखों में विश्वास भरे,
मानो कहती “तुम मेरे हो
अब क्यों कोई वृथा डरे?”
जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से
लगे बहुत धीरे कहने,
“ले चल इस छाया के बाहर
मुझको दे न यहाँ रहने।
मुक्त नील नभ के नीचे
या कहीं गुहा में रह लेंगे,
अरे झेलता ही आया हूँ-
जो आवेगा सह लेंगे”
“ठहरो कुछ तो बल आने दो
लिवा चलूँगी तुरंत तुम्हें,
इतने क्षण तक” श्रद्धा बोली-
“रहने देंगी क्या न हमें?”
इडा संकुचित उधर खडी थी
यह अधिकार न छीन सकी,
श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले
उनकी वाणी नहीं रुकी।
“जब जीवन में साध भरी थी
उच्छृंखल अनुरोध भरा,
अभिलाषायें भरी हृदय में
अपनेपन का बोध भरा।
मैं था, सुंदर कुसुमों की वह
सघन सुनहली छाया थी,
मलयानिल की लहर उठ रही
उल्लासों की माया थी।
उषा अरुण प्याला भर लाती
सुरभित छाया के नीचे
मेरा यौवन पीता सुख से
अलसाई आँखे मींचे।
ले मकरंद नया चू पडती
शरद-प्रात की शेफाली,
बिखराती सुख ही, संध्या की
सुंदर अलकें घुँघराली।
सहसा अधंकार की आँधी
उठी क्षितिज से वेग भरी,
हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी
उद्वेलित मानस लहरी।
व्यथित हृदय उस नीले नभ में
छाया पथ-सा खुला तभी,
अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति
कर दी तुमने देवि जभी।
दिव्य तुम्हारी अमर अमिट
छवि लगी खेलने रंग-रली,
नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-
निकष पर खिंची भली।
अरुणाचल मन मंदिर की वह
मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,
गी सिखाने स्नेह-मयी सी
सुंदरता की मृदु महिमा।
उस दिन तो हम जान सके थे
सुंदर किसको हैं कहते
तब पहचान सके, किसके हित
प्राणी यह दुख-सुख सहते।
जीवन कहता यौवन से
“कुछ देखा तूने मतवाले”
यौवन कहता साँस लिये
चल कुछ अपना संबल पाले”
हृदय बन रहा था सीपी सा
तुम स्वाती की बूँद बनी,
मानस-शतदल झूम उठा
जब तुम उसमें मकरंद बनीं।
तुमने इस सूखे पतझड में
भर दी हरियाली कितनी,
मैंने समझा मादकता है
तृप्ति बन गयी वह इतनी
विश्व, कि जिसमें दुख की
आँधी पीडा की लहरी उठती,
जिसमें जीवन मरण बना था
बुदबुद की माया नचती।
वही शांत उज्जवल मंगल सा
दिखता था विश्वास भरा,
वर्षा के कदंब कानन सा
सृष्टि-विभव हो उठा हरा।
भगवती वह पावन मधु-धारा
देख अमृत भी ललचाये,
वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से
जिसमें जीवन धुल जाये
संध्या अब ले जाती मुझसे
ताराओं की अकथ कथा,
नींद सहज ही ले लेती थी
सारे श्रमकी विकल व्यथा।
सकल कुतूहल और कल्पना
उन चरणों से उलझ पडी,
कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से
जीवन की वह धन्य घडी।
स्मिति मधुराका थी, शवासों से
पारिजात कानन खिलता,
गति मरंद-मथंर मलयज-सी
स्वर में वेणु कहाँ मिलता
श्वास-पवन पर चढ कर मेरे
दूरागत वंशी-रत्न-सी,
गूँज उठीं तुम, विश्व कुहर में
दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी
जीवन-जलनिधि के तल से
जो मुक्ता थे वे निकल पडे,
जग-मंगल-संगीत तुम्हारा
गाते मेरे रोम खडे।
आशा की आलोक-किरन से
कुछ मानस से ले मेरे,
लघु जलधर का सृजन हुआ था
जिसको शशिलेखा घेरे-
उस पर बिजली की माला-सी
झूम पडी तुम प्रभा भरी,
और जलद वह रिमझिम
बरसा मन-वनस्थली हुई हरी
तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया
विश्व खेल है खेल चलो,
तुमने मिलकर मुझे बताया
सबसे करते मेल चलो।
यह भी अपनी बिजली के से
विभ्रम से संकेत किया,
अपना मन है जिसको चाहा
तब इसको दे दान दिया।
तुम अज्रस वर्षा सुहाग की
और स्नेह की मधु-रजनी,
विर अतृप्ति जीवन यदि था
तो तुम उसमें संतोष बनी।
कितना है उपकार तुम्हारा
आशिररात मेरा प्रणय हुआ
आकितना आभारी हूँ, इतना
संवेदनमय हृदय हुआ।
किंतु अधम मैं समझ न पाया
उस मंगल की माया को,
और आज भी पकड रहा हूँ
हर्ष शोक की छाया को,
मेरा सब कुछ क्रोध मोह के
उपादान से गठित हुआ,
ऐसा ही अनुभव होता है
किरनों ने अब तक न छुआ।
शापित-सा मैं जीवन का यह
ले कंकाल भटकता हूँ,
उसी खोखलेपन में जैसे
कुछ खोजता अटकता हूँ।
अंध-तमस है, किंतु प्रकृति का
आकर्षण है खींच रहा,
सब पर, हाँ अपने पर भी
मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा।
नहीं पा सका हूँ मैं जैसे
जो तुम देना चाह रही,
क्षुद्र पात्र तुम उसमें कितनी
मधु-धारा हो ढाल रही।
सब बाहर होता जाता है
स्वगत उसे मैं कर न सका,
बुद्धि-तर्क के छिद्र हुए थे
हृदय हमारा भर न सका।
यह कुमार-मेरे जीवन का
उच्च अंश, कल्याण-कला
कितना बडा प्रलोभन मेरा
हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।
सुखी रहें, सब सुखी रहें बस
छोडो मुझ अपराधी को”
श्रद्धा देख रही चुप मनु के
भीतर उठती आँधी को।
दिन बीता रजनी भी आयी
तंद्रा निद्रा संग लिये,
इडा कुमार समीप पडी थी
मन की दबी उमंग लिये।
श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी सी
हाथों को उपधान किये,
पडी सोचती मन ही मन कुछ,
मनु चुप सब अभिशाप पिये-
सोच रहे थे, “जीवन सुख है?
ना, यह विकट पहेली है,
भाग अरे मनु इंद्रजाल से
कितनी व्यथा न झेली है?
यह प्रभात की स्वर्ण किरन सी
झिलमिल चंचल सी छाया,
श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे
यह मुख या कलुषित काया।
और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर
इनका क्या विश्वास करूँ,
प्रतिहिंसा प्रतिशोध दबा कर
मन ही मन चुपचाप मरूँ।
श्रद्धा के रहते यह संभव
नहीं कि कुछ कर पाऊँगा
तो फिर शांति मिलेगी मुझको
जहाँ खोजता जाऊँगा।”
जगे सभी जब नव प्रभात में
देखें तो मनु वहाँ नहीं,
‘पिता कहाँ’ कह खोज रहा था
यह कुमार अब शांत नहीं।
इडा आज अपने को सबसे
अपराधी है समझ रही,
कामायनी मौन बैठी सी
अपने में ही उलझ रही।
निर्वेद / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध,
मलिन, कुछ मौन बना,
जिसके ऊपर विगत कर्म का
विष-विषाद-आवरण तना।
उल्का धारी प्रहरी से ग्रह-
तारा नभ में टहल रहे,
वसुधा पर यह होता क्या है
अणु-अणु क्यों है मचल रहे?
जीवन में जागरण सत्य है
या सुषुप्ति ही सीमा है,
आती है रह रह पुकार-सी
‘यह भव-रजनी भीमा है।’
निशिचारी भीषण विचार के
पंख भर रहे सर्राटे,
सरस्वती थी चली जा रही
खींच रही-सी सन्नाटे।
अभी घायलों की सिसकी में
जाग रही थी मर्म-व्यथा,
पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस
कुछ कह उठती थी करुण-कथा।
कुछ प्रकाश धूमिल-सा उसके
दीपों से था निकल रहा,
पवन चल रहा था रुक-रुक कर
खिन्न, भरा अवसाद रहा।
भयमय मौन निरीक्षक-सा था
सजग सतत चुपचाप खडा,
अंधकार का नील आवरण
दृश्य-जगत से रहा बडा।
मंडप के सोपान पडे थे सूने,
कोई अन्य नहीं,
स्वयं इडा उस पर बैठी थी
अग्नि-शिखा सी धधक रही।
शून्य राज-चिह्नों से मंदिर
बस समाधि-सा रहा खडा,
क्योंकि वही घायल शरीर
वह मनु का था रहा पडा।
इडा ग्लानि से भरी हुई
बस सोच रही बीती बातें,
घृणा और ममता में ऐसी
बीत चुकीं कितनी रातें।
नारी का वह हृदय हृदय में-
सुधा-सिंधु लहरें लेता,
बाडव-ज्वलन उसी में जलकर
कँचन सा जल रँग देता।
मधु-पिगल उस तरल-अग्नि में
शीतलता संसृति रचती,
क्षमा और प्रतिशोध आह रे
दोनों की माया नचती।
“उसने स्नेह किया था मुझसे
हाँ अनन्य वह रहा नहीं,
सहज लब्ध थी वह अनन्यता
पडी रह सके जहाँ कहीं।
बाधाओं का अतिक्रमण कर
जो अबाध हो दौड चले,
वही स्नेह अपराध हो उठा
जो सब सीमा तोड चले।
“हाँ अपराध, किंतु वह कितना
एक अकेले भीम बना,
जीवन के कोने से उठकर
इतना आज असीम बना
और प्रचुर उपकार सभी वह
सहृदयता की सब माया,
शून्य-शून्य था केवल उसमें
खेल रही थी छल छाया
“कितना दुखी एक परदेशी बन,
उस दिन जो आया था,
जिसके नीचे धारा नहीं थी
शून्य चतुर्दिक छाया था।
वह शासन का सूत्रधार था
नियमन का आधार बना,
अपने निर्मित नव विधान से
स्वयं दंड साकार बना।
“सागर की लहरों से उठकर
शैल-श्रृंग पर सहज चढा,
अप्रतिहत गति, संस्थानों से
रहता था जो सदा बढा।
आज पडा है वह मुमूर्ष सा
वह अतीत सब सपना था,
उसके ही सब हुए पराये
सबका ही जो अपना था।
“किंतु वही मेरा अपराधी
जिसका वह उपकारी था,
प्रकट उसी से दोष हुआ है
जो सबको गुणकारी था।
अरे सर्ग-अकुंर के दोनों
पल्लव हैं ये भले बुरे,
एक दूसरे की सीमा है
क्यों न युगल को प्यार करें?
“अपना हो या औरों का सुख
बढा कि बस दुख बना वहीं,
कौन बिंदु है रुक जाने का
यह जैसे कुछ ज्ञात नहीं।
प्राणी निज-भविष्य-चिंता में
वर्त्तमान का सुख छोडे,
दौड चला है बिखराता सा
अपने ही पथ में रोडे।”
“इसे दंड दने मैं बैठी
या करती रखवाली मैं,
यह कैसी है विकट पहेली
कितनी उलझन वाली मैं?
एक कल्पना है मीठी यह
इससे कुछ सुंदर होगा,
हाँ कि, वास्तविकता से अच्छी
सत्य इसी को वर देगा।”
चौंक उठी अपने विचार से
कुछ दूरागत-ध्वनि सुनती,
इस निस्तब्ध-निशा में कोई
चली आ रही है कहती-
“अरे बता दो मुझे दया कर
कहाँ प्रवासी है मेरा?
उसी बावले से मिलने को
डाल रही हूँ मैं फेरा।
रूठ गया था अपनेपन से
अपना सकी न उसको मैं,
वह तो मेरा अपना ही था
भला मनाती किसको मैं
यही भूल अब शूल-सदृश
हो साल रही उर में मेरे
कैसे पाऊँगी उसको मैं
कोई आकर कह दे रे”
इडा उठी, दिख पडा राजपथ
धुँधली सी छाया चलती,
वाणी में थी करूणा-वेदना
वह पुकार जैसे जलती।
शिथिल शरीर, वसन विश्रृंखल
कबरी अधिक अधीर खुली,
छिन्नपत्र मकरंद लुटी सी
ज्यों मुरझायी हुयी कली।
नव कोमल अवलंब साथ में
वय किशोर उँगली पकडे,
चला आ रहा मौन धैर्य सा
अपनी माता को पकडे।
थके हुए थे दुखी बटोही
वे दोनों ही माँ-बेटे,
खोज रहे थे भूले मनु को
जो घायल हो कर लेटे।
इडा आज कुछ द्रवित हो रही
दुखियों को देखा उसने,
पहुँची पास और फिर पूछा
“तुमको बिसराया किसने?
इस रजनी में कहाँ भटकती
जाओगी तुम बोलो तो,
बैठो आज अधिक चंचल हूँ
व्यथा-गाँठ निज खोलो तो।
जीवन की लम्बी यात्रा में
खोये भी हैं मिल जाते,
जीवन है तो कभी मिलन है
कट जाती दुख की रातें।”
श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था
मिलता है विश्राम यहीं,
चली इडा के साथ जहाँ पर
वह्नि शिखा प्रज्वलित रही।
सहसा धधकी वेदी ज्वाला
मंडप आलोकित करती,
कामायनी देख पायी कुछ
पहुँची उस तक डग भरती।
और वही मनु घायल सचमुच
तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?
आह प्राणप्रिय यह क्या?
तुम यों घुला ह्रदय,बन नीर बहा।
इडा चकित, श्रद्धा आ बैठी
वह थी मनु को सहलाती,
अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था
व्यथा भला क्यों रह जाती?
उस मूर्छित नीरवता में
कुछ हलके से स्पंदन आये।
आँखे खुलीं चार कोनों में
चार बिदु आकर छाये।
उधर कुमार देखता ऊँचे
मंदिर, मंडप, वेदी को,
यह सब क्या है नया मनोहर
कैसे ये लगते जी को?
माँ ने कहा ‘अरे आ तू भी
देख पिता हैं पडे हुए,’
‘पिता आ गया लो’ यह
कहते उसके रोयें खडे हुए।
“माँ जल दे, कुछ प्यासे होंगे
क्या बैठी कर रही यहाँ?”
मुखर हो गया सूना मंडप
यह सजीवता रही यहाँ?”
आत्मीयता घुली उस घर में
छोटा सा परिवार बना,
छाया एक मधुर स्वर उस पर
श्रद्धा का संगीत बना।
“तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्रदय की बात रे मन
विकल होकर नित्य चचंल,
खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की बात रे मन
चिर-विषाद-विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर-वन की लृ
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,
कुसुम-विकसित प्रात रे मन
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन
पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व-दिन की
मैं कुसुम-श्रृतु-रात रे मन
चिर निराशा नीरधार से,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन”
उस स्वर-लहरी के अक्षर
सब संजीवन रस बने घुले।
मलिन, कुछ मौन बना,
जिसके ऊपर विगत कर्म का
विष-विषाद-आवरण तना।
उल्का धारी प्रहरी से ग्रह-
तारा नभ में टहल रहे,
वसुधा पर यह होता क्या है
अणु-अणु क्यों है मचल रहे?
जीवन में जागरण सत्य है
या सुषुप्ति ही सीमा है,
आती है रह रह पुकार-सी
‘यह भव-रजनी भीमा है।’
निशिचारी भीषण विचार के
पंख भर रहे सर्राटे,
सरस्वती थी चली जा रही
खींच रही-सी सन्नाटे।
अभी घायलों की सिसकी में
जाग रही थी मर्म-व्यथा,
पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस
कुछ कह उठती थी करुण-कथा।
कुछ प्रकाश धूमिल-सा उसके
दीपों से था निकल रहा,
पवन चल रहा था रुक-रुक कर
खिन्न, भरा अवसाद रहा।
भयमय मौन निरीक्षक-सा था
सजग सतत चुपचाप खडा,
अंधकार का नील आवरण
दृश्य-जगत से रहा बडा।
मंडप के सोपान पडे थे सूने,
कोई अन्य नहीं,
स्वयं इडा उस पर बैठी थी
अग्नि-शिखा सी धधक रही।
शून्य राज-चिह्नों से मंदिर
बस समाधि-सा रहा खडा,
क्योंकि वही घायल शरीर
वह मनु का था रहा पडा।
इडा ग्लानि से भरी हुई
बस सोच रही बीती बातें,
घृणा और ममता में ऐसी
बीत चुकीं कितनी रातें।
नारी का वह हृदय हृदय में-
सुधा-सिंधु लहरें लेता,
बाडव-ज्वलन उसी में जलकर
कँचन सा जल रँग देता।
मधु-पिगल उस तरल-अग्नि में
शीतलता संसृति रचती,
क्षमा और प्रतिशोध आह रे
दोनों की माया नचती।
“उसने स्नेह किया था मुझसे
हाँ अनन्य वह रहा नहीं,
सहज लब्ध थी वह अनन्यता
पडी रह सके जहाँ कहीं।
बाधाओं का अतिक्रमण कर
जो अबाध हो दौड चले,
वही स्नेह अपराध हो उठा
जो सब सीमा तोड चले।
“हाँ अपराध, किंतु वह कितना
एक अकेले भीम बना,
जीवन के कोने से उठकर
इतना आज असीम बना
और प्रचुर उपकार सभी वह
सहृदयता की सब माया,
शून्य-शून्य था केवल उसमें
खेल रही थी छल छाया
“कितना दुखी एक परदेशी बन,
उस दिन जो आया था,
जिसके नीचे धारा नहीं थी
शून्य चतुर्दिक छाया था।
वह शासन का सूत्रधार था
नियमन का आधार बना,
अपने निर्मित नव विधान से
स्वयं दंड साकार बना।
“सागर की लहरों से उठकर
शैल-श्रृंग पर सहज चढा,
अप्रतिहत गति, संस्थानों से
रहता था जो सदा बढा।
आज पडा है वह मुमूर्ष सा
वह अतीत सब सपना था,
उसके ही सब हुए पराये
सबका ही जो अपना था।
“किंतु वही मेरा अपराधी
जिसका वह उपकारी था,
प्रकट उसी से दोष हुआ है
जो सबको गुणकारी था।
अरे सर्ग-अकुंर के दोनों
पल्लव हैं ये भले बुरे,
एक दूसरे की सीमा है
क्यों न युगल को प्यार करें?
“अपना हो या औरों का सुख
बढा कि बस दुख बना वहीं,
कौन बिंदु है रुक जाने का
यह जैसे कुछ ज्ञात नहीं।
प्राणी निज-भविष्य-चिंता में
वर्त्तमान का सुख छोडे,
दौड चला है बिखराता सा
अपने ही पथ में रोडे।”
“इसे दंड दने मैं बैठी
या करती रखवाली मैं,
यह कैसी है विकट पहेली
कितनी उलझन वाली मैं?
एक कल्पना है मीठी यह
इससे कुछ सुंदर होगा,
हाँ कि, वास्तविकता से अच्छी
सत्य इसी को वर देगा।”
चौंक उठी अपने विचार से
कुछ दूरागत-ध्वनि सुनती,
इस निस्तब्ध-निशा में कोई
चली आ रही है कहती-
“अरे बता दो मुझे दया कर
कहाँ प्रवासी है मेरा?
उसी बावले से मिलने को
डाल रही हूँ मैं फेरा।
रूठ गया था अपनेपन से
अपना सकी न उसको मैं,
वह तो मेरा अपना ही था
भला मनाती किसको मैं
यही भूल अब शूल-सदृश
हो साल रही उर में मेरे
कैसे पाऊँगी उसको मैं
कोई आकर कह दे रे”
इडा उठी, दिख पडा राजपथ
धुँधली सी छाया चलती,
वाणी में थी करूणा-वेदना
वह पुकार जैसे जलती।
शिथिल शरीर, वसन विश्रृंखल
कबरी अधिक अधीर खुली,
छिन्नपत्र मकरंद लुटी सी
ज्यों मुरझायी हुयी कली।
नव कोमल अवलंब साथ में
वय किशोर उँगली पकडे,
चला आ रहा मौन धैर्य सा
अपनी माता को पकडे।
थके हुए थे दुखी बटोही
वे दोनों ही माँ-बेटे,
खोज रहे थे भूले मनु को
जो घायल हो कर लेटे।
इडा आज कुछ द्रवित हो रही
दुखियों को देखा उसने,
पहुँची पास और फिर पूछा
“तुमको बिसराया किसने?
इस रजनी में कहाँ भटकती
जाओगी तुम बोलो तो,
बैठो आज अधिक चंचल हूँ
व्यथा-गाँठ निज खोलो तो।
जीवन की लम्बी यात्रा में
खोये भी हैं मिल जाते,
जीवन है तो कभी मिलन है
कट जाती दुख की रातें।”
श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था
मिलता है विश्राम यहीं,
चली इडा के साथ जहाँ पर
वह्नि शिखा प्रज्वलित रही।
सहसा धधकी वेदी ज्वाला
मंडप आलोकित करती,
कामायनी देख पायी कुछ
पहुँची उस तक डग भरती।
और वही मनु घायल सचमुच
तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?
आह प्राणप्रिय यह क्या?
तुम यों घुला ह्रदय,बन नीर बहा।
इडा चकित, श्रद्धा आ बैठी
वह थी मनु को सहलाती,
अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था
व्यथा भला क्यों रह जाती?
उस मूर्छित नीरवता में
कुछ हलके से स्पंदन आये।
आँखे खुलीं चार कोनों में
चार बिदु आकर छाये।
उधर कुमार देखता ऊँचे
मंदिर, मंडप, वेदी को,
यह सब क्या है नया मनोहर
कैसे ये लगते जी को?
माँ ने कहा ‘अरे आ तू भी
देख पिता हैं पडे हुए,’
‘पिता आ गया लो’ यह
कहते उसके रोयें खडे हुए।
“माँ जल दे, कुछ प्यासे होंगे
क्या बैठी कर रही यहाँ?”
मुखर हो गया सूना मंडप
यह सजीवता रही यहाँ?”
आत्मीयता घुली उस घर में
छोटा सा परिवार बना,
छाया एक मधुर स्वर उस पर
श्रद्धा का संगीत बना।
“तुमुल कोलाहल कलह में
मैं ह्रदय की बात रे मन
विकल होकर नित्य चचंल,
खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की बात रे मन
चिर-विषाद-विलीन मन की,
इस व्यथा के तिमिर-वन की लृ
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,
कुसुम-विकसित प्रात रे मन
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन
पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व-दिन की
मैं कुसुम-श्रृतु-रात रे मन
चिर निराशा नीरधार से,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन”
उस स्वर-लहरी के अक्षर
सब संजीवन रस बने घुले।
संघर्ष / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
आह न समझोगे क्या
मेरी अच्छी बातें,
तुम उत्तेजित होकर
अपना प्राप्य न पाते।
प्रजा क्षुब्ध हो शरण
माँगती उधर खडी है,
प्रकृति सतत आतंक
विकंपित घडी-घडी है।
साचधान, में शुभाकांक्षिणी
और कहूँ क्या
कहना था कह चुकी
और अब यहाँ रहूँ क्या”
“मायाविनि, बस पाली
तमने ऐसे छुट्टी,
लडके जैसे खेलों में
कर लेते खुट्टी।
मूर्तिमयी अभिशाप बनी
सी सम्मुख आयी,
तुमने ही संघर्ष
भूमिका मुझे दिखायी।
रूधिर भरी वेदियाँ
भयकरी उनमें ज्वाला,
विनयन का उपचार
तुम्हीं से सीख निकाला।
चार वर्ण बन गये
बँटा श्रम उनका अपना
शस्त्र यंत्र बन चले,
न देखा जिनका सपना।
आज शक्ति का खेल
खेलने में आतुर नर,
प्रकृति संग संघर्ष
निरंतर अब कैसा डर?
बाधा नियमों की न
पास में अब आने दो
इस हताश जीवन में
क्षण-सुख मिल जाने दो।
राष्ट्र-स्वामिनी, यह लो
सब कुछ वैभव अपना,
केवल तुमको सब उपाय से
कह लूँ अपना।
यह सारस्वत देश या कि
फिर ध्वंस हुआ सा
समझो, तुम हो अग्नि
और यह सभी धुआँ सा?”
“मैंने जो मनु, किया
उसे मत यों कह भूलो,
तुमको जितना मिला
उसी में यों मत फूलो।
प्रकृति संग संघर्ष
सिखाया तुमको मैंने,
तुमको केंद्र बनाकर
अनहित किया न मैंने
मैंने इस बिखरी-बिभूति
पर तुमको स्वामी,
सहज बनाया, तुम
अब जिसके अंतर्यामी।
किंतु आज अपराध
हमारा अलग खड़ा है,
हाँ में हाँ न मिलाऊँ
तो अपराध बडा है।
मनु देखो यह भ्रांत
निशा अब बीत रही है,
प्राची में नव-उषा
तमस् को जीत रही है।
अभी समय है मुझ पर
कुछ विश्वास करो तो।’
बनती है सब बात
तनिक तुम धैर्य धरो तो।”
और एक क्षण वह,
प्रमाद का फिर से आया,
इधर इडा ने द्वार ओर
निज पैर बढाया।
किंतु रोक ली गयी
भुजाओं की मनु की वह,
निस्सहाय ही दीन-दृष्टि
देखती रही वह।
“यह सारस्वत देश
तुम्हारा तुम हो रानी।
मुझको अपना अस्त्र
बना करती मनमानी।
यह छल चलने में अब
पंगु हुआ सा समझो,
मुझको भी अब मुक्त
जाल से अपने समझो।
शासन की यह प्रगति
सहज ही अभी रुकेगी,
क्योंकि दासता मुझसे
अब तो हो न सकेगी।
मैं शासक, मैं चिर स्वतंत्र,
तुम पर भी मेरा-
हो अधिकार असीम,
सफल हो जीवन मेरा।
छिन्न भिन्न अन्यथा
हुई जाती है पल में,
सकल व्यवस्था अभी
जाय डूबती अतल में।
देख रहा हूँ वसुधा का
अति-भय से कंपन,
और सुन रहा हूँ नभ का
यह निर्मम-क्रंदन
किंतु आज तुम
बंदी हो मेरी बाँहों में,
मेरी छाती में,”-फिर
सब डूबा आहों में
सिंहद्वार अरराया
जनता भीतर आयी,
“मेरी रानी” उसने
जो चीत्कार मचायी।
अपनी दुर्बलता में
मनु तब हाँफ रहे थे,
स्खलन विकंपित पद वे
अब भी काँप रहे थे।
सजग हुए मनु वज्र-
खचित ले राजदंड तब,
और पुकारा “तो सुन लो-
जो कहता हूँ अब।
“तुम्हें तृप्तिकर सुख के
साधन सकल बताया,
मैंने ही श्रम-भाग किया
फिर वर्ग बनाया।
अत्याचार प्रकृति-कृत
हम सब जो सहते हैं,
करते कुछ प्रतिकार
न अब हम चुप रहते हैं
आज न पशु हैं हम,
या गूँगे काननचारी,
यह उपकृति क्या
भूल गये तुम आज हमारी”
वे बोले सक्रोध मानसिक
भीषण दुख से,
“देखो पाप पुकार उठा
अपने ही सुख से
तुमने योगक्षेम से
अधिक संचय वाला,
लोभ सिखा कर इस
विचार-संकट में डाला।
हम संवेदनशील हो चले
यही मिला सुख,
कष्ट समझने लगे बनाकर
निज कृत्रिम दुख
प्रकृत-शक्ति तुमने यंत्रों
से सब की छीनी
शोषण कर जीवनी
बना दी जर्जर झीनी
और इड़ा पर यह क्या
अत्याचार किया है?
इसीलिये तू हम सब के
बल यहाँ जिया है?
आज बंदिनी मेरी
रानी इड़ा यहाँ है?
ओ यायावर अब
मेरा निस्तार कहाँ है?”
“तो फिर मैं हूँ आज
अकेला जीवन रभ में,
प्रकृति और उसके
पुतलों के दल भीषण में।
आज साहसिक का पौरुष
निज तन पर खेलें,
राजदंड को वज्र बना
सा सचमुच देखें।”
यों कह मनु ने अपना
भीषण अस्त्र सम्हाला,
देव ‘आग’ ने उगली
त्यों ही अपनी ज्वाला।
छूट चले नाराच धनुष
से तीक्ष्ण नुकीले,
टूट रहे नभ-धूमकेतु
अति नीले-पीले।
अंधड थ बढ रहा,
प्रजा दल सा झुंझलाता,
रण वर्षा में शस्त्रों सा
बिजली चमकाता।
किंतु क्रूर मनु वारण
करते उन बाणों को,
बढे कुचलते हुए खड्ग से
जन-प्राणों को।
तांडव में थी तीव्र प्रगति,
परमाणु विकल थे,
नियति विकर्षणमयी,
त्रास से सब व्याकुल थे।
मनु फिर रहे अलात-
चक्र से उस घन-तम में,
वह रक्तिम-उन्माद
नाचता कर निर्मम में।
उठ तुमुल रण-नाद,
भयानक हुई अवस्था,
बढा विपक्ष समूह
मौन पददलित व्यवस्था।
आहत पीछे हटे, स्तंभ से
टिक कर मनु ने,
श्वास लिया, टंकार किया
दुर्लक्ष्यी धनु ने।
बहते विकट अधीर
विषम उंचास-वात थे,
मरण-पर्व था, नेता
आकुलि औ’ किलात थे।
ललकारा, “बस अब
इसको मत जाने देना”
किंतु सजग मनु पहुँच
गये कह “लेना लेना”।
“कायर, तुम दोनों ने ही
उत्पात मचाया,
अरे, समझकर जिनको
अपना था अपनाया।
तो फिर आओ देखो
कैसे होती है बलि,
रण यह यज्ञ, पुरोहित
ओ किलात औ’ आकुलि।
और धराशायी थे
असुर-पुरोहित उस क्षण,
इड़ा अभी कहती जाती थी
“बस रोको रण।
भीषन जन संहार
आप ही तो होता है,
ओ पागल प्राणी तू
क्यों जीवन खोता है
क्यों इतना आतंक
ठहर जा ओ गर्वीले,
जीने दे सबको फिर
तू भी सुख से जी ले।”
किंतु सुन रहा कौण
धधकती वेदी ज्वाला,
सामूहिक-बलि का
निकला था पंथ निराला।
रक्तोन्मद मनु का न
हाथ अब भी रुकता था,
प्रजा-पक्ष का भी न
किंतु साहस झुकता था।
वहीं धर्षिता खड़ी
इड़ा सारस्वत-रानी,
वे प्रतिशोध अधीर,
रक्त बहता बन पानी।
धूंकेतु-सा चला
रुद्र-नाराच भयंकर,
लिये पूँछ में ज्वाला
अपनी अति प्रलयंकर।
अंतरिक्ष में महाशक्ति
हुंकार कर उठी
सब शस्त्रों की धारें
भीषण वेग भर उठीं।
और गिरीं मनु पर,
मुमूर्व वे गिरे वहीं पर,
रक्त नदी की बाढ-
फैलती थी उस भू पर।
मेरी अच्छी बातें,
तुम उत्तेजित होकर
अपना प्राप्य न पाते।
प्रजा क्षुब्ध हो शरण
माँगती उधर खडी है,
प्रकृति सतत आतंक
विकंपित घडी-घडी है।
साचधान, में शुभाकांक्षिणी
और कहूँ क्या
कहना था कह चुकी
और अब यहाँ रहूँ क्या”
“मायाविनि, बस पाली
तमने ऐसे छुट्टी,
लडके जैसे खेलों में
कर लेते खुट्टी।
मूर्तिमयी अभिशाप बनी
सी सम्मुख आयी,
तुमने ही संघर्ष
भूमिका मुझे दिखायी।
रूधिर भरी वेदियाँ
भयकरी उनमें ज्वाला,
विनयन का उपचार
तुम्हीं से सीख निकाला।
चार वर्ण बन गये
बँटा श्रम उनका अपना
शस्त्र यंत्र बन चले,
न देखा जिनका सपना।
आज शक्ति का खेल
खेलने में आतुर नर,
प्रकृति संग संघर्ष
निरंतर अब कैसा डर?
बाधा नियमों की न
पास में अब आने दो
इस हताश जीवन में
क्षण-सुख मिल जाने दो।
राष्ट्र-स्वामिनी, यह लो
सब कुछ वैभव अपना,
केवल तुमको सब उपाय से
कह लूँ अपना।
यह सारस्वत देश या कि
फिर ध्वंस हुआ सा
समझो, तुम हो अग्नि
और यह सभी धुआँ सा?”
“मैंने जो मनु, किया
उसे मत यों कह भूलो,
तुमको जितना मिला
उसी में यों मत फूलो।
प्रकृति संग संघर्ष
सिखाया तुमको मैंने,
तुमको केंद्र बनाकर
अनहित किया न मैंने
मैंने इस बिखरी-बिभूति
पर तुमको स्वामी,
सहज बनाया, तुम
अब जिसके अंतर्यामी।
किंतु आज अपराध
हमारा अलग खड़ा है,
हाँ में हाँ न मिलाऊँ
तो अपराध बडा है।
मनु देखो यह भ्रांत
निशा अब बीत रही है,
प्राची में नव-उषा
तमस् को जीत रही है।
अभी समय है मुझ पर
कुछ विश्वास करो तो।’
बनती है सब बात
तनिक तुम धैर्य धरो तो।”
और एक क्षण वह,
प्रमाद का फिर से आया,
इधर इडा ने द्वार ओर
निज पैर बढाया।
किंतु रोक ली गयी
भुजाओं की मनु की वह,
निस्सहाय ही दीन-दृष्टि
देखती रही वह।
“यह सारस्वत देश
तुम्हारा तुम हो रानी।
मुझको अपना अस्त्र
बना करती मनमानी।
यह छल चलने में अब
पंगु हुआ सा समझो,
मुझको भी अब मुक्त
जाल से अपने समझो।
शासन की यह प्रगति
सहज ही अभी रुकेगी,
क्योंकि दासता मुझसे
अब तो हो न सकेगी।
मैं शासक, मैं चिर स्वतंत्र,
तुम पर भी मेरा-
हो अधिकार असीम,
सफल हो जीवन मेरा।
छिन्न भिन्न अन्यथा
हुई जाती है पल में,
सकल व्यवस्था अभी
जाय डूबती अतल में।
देख रहा हूँ वसुधा का
अति-भय से कंपन,
और सुन रहा हूँ नभ का
यह निर्मम-क्रंदन
किंतु आज तुम
बंदी हो मेरी बाँहों में,
मेरी छाती में,”-फिर
सब डूबा आहों में
सिंहद्वार अरराया
जनता भीतर आयी,
“मेरी रानी” उसने
जो चीत्कार मचायी।
अपनी दुर्बलता में
मनु तब हाँफ रहे थे,
स्खलन विकंपित पद वे
अब भी काँप रहे थे।
सजग हुए मनु वज्र-
खचित ले राजदंड तब,
और पुकारा “तो सुन लो-
जो कहता हूँ अब।
“तुम्हें तृप्तिकर सुख के
साधन सकल बताया,
मैंने ही श्रम-भाग किया
फिर वर्ग बनाया।
अत्याचार प्रकृति-कृत
हम सब जो सहते हैं,
करते कुछ प्रतिकार
न अब हम चुप रहते हैं
आज न पशु हैं हम,
या गूँगे काननचारी,
यह उपकृति क्या
भूल गये तुम आज हमारी”
वे बोले सक्रोध मानसिक
भीषण दुख से,
“देखो पाप पुकार उठा
अपने ही सुख से
तुमने योगक्षेम से
अधिक संचय वाला,
लोभ सिखा कर इस
विचार-संकट में डाला।
हम संवेदनशील हो चले
यही मिला सुख,
कष्ट समझने लगे बनाकर
निज कृत्रिम दुख
प्रकृत-शक्ति तुमने यंत्रों
से सब की छीनी
शोषण कर जीवनी
बना दी जर्जर झीनी
और इड़ा पर यह क्या
अत्याचार किया है?
इसीलिये तू हम सब के
बल यहाँ जिया है?
आज बंदिनी मेरी
रानी इड़ा यहाँ है?
ओ यायावर अब
मेरा निस्तार कहाँ है?”
“तो फिर मैं हूँ आज
अकेला जीवन रभ में,
प्रकृति और उसके
पुतलों के दल भीषण में।
आज साहसिक का पौरुष
निज तन पर खेलें,
राजदंड को वज्र बना
सा सचमुच देखें।”
यों कह मनु ने अपना
भीषण अस्त्र सम्हाला,
देव ‘आग’ ने उगली
त्यों ही अपनी ज्वाला।
छूट चले नाराच धनुष
से तीक्ष्ण नुकीले,
टूट रहे नभ-धूमकेतु
अति नीले-पीले।
अंधड थ बढ रहा,
प्रजा दल सा झुंझलाता,
रण वर्षा में शस्त्रों सा
बिजली चमकाता।
किंतु क्रूर मनु वारण
करते उन बाणों को,
बढे कुचलते हुए खड्ग से
जन-प्राणों को।
तांडव में थी तीव्र प्रगति,
परमाणु विकल थे,
नियति विकर्षणमयी,
त्रास से सब व्याकुल थे।
मनु फिर रहे अलात-
चक्र से उस घन-तम में,
वह रक्तिम-उन्माद
नाचता कर निर्मम में।
उठ तुमुल रण-नाद,
भयानक हुई अवस्था,
बढा विपक्ष समूह
मौन पददलित व्यवस्था।
आहत पीछे हटे, स्तंभ से
टिक कर मनु ने,
श्वास लिया, टंकार किया
दुर्लक्ष्यी धनु ने।
बहते विकट अधीर
विषम उंचास-वात थे,
मरण-पर्व था, नेता
आकुलि औ’ किलात थे।
ललकारा, “बस अब
इसको मत जाने देना”
किंतु सजग मनु पहुँच
गये कह “लेना लेना”।
“कायर, तुम दोनों ने ही
उत्पात मचाया,
अरे, समझकर जिनको
अपना था अपनाया।
तो फिर आओ देखो
कैसे होती है बलि,
रण यह यज्ञ, पुरोहित
ओ किलात औ’ आकुलि।
और धराशायी थे
असुर-पुरोहित उस क्षण,
इड़ा अभी कहती जाती थी
“बस रोको रण।
भीषन जन संहार
आप ही तो होता है,
ओ पागल प्राणी तू
क्यों जीवन खोता है
क्यों इतना आतंक
ठहर जा ओ गर्वीले,
जीने दे सबको फिर
तू भी सुख से जी ले।”
किंतु सुन रहा कौण
धधकती वेदी ज्वाला,
सामूहिक-बलि का
निकला था पंथ निराला।
रक्तोन्मद मनु का न
हाथ अब भी रुकता था,
प्रजा-पक्ष का भी न
किंतु साहस झुकता था।
वहीं धर्षिता खड़ी
इड़ा सारस्वत-रानी,
वे प्रतिशोध अधीर,
रक्त बहता बन पानी।
धूंकेतु-सा चला
रुद्र-नाराच भयंकर,
लिये पूँछ में ज्वाला
अपनी अति प्रलयंकर।
अंतरिक्ष में महाशक्ति
हुंकार कर उठी
सब शस्त्रों की धारें
भीषण वेग भर उठीं।
और गिरीं मनु पर,
मुमूर्व वे गिरे वहीं पर,
रक्त नदी की बाढ-
फैलती थी उस भू पर।
संघर्ष / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
श्रद्धा का था स्वप्न
किंतु वह सत्य बना था,
इड़ा संकुचित उधर
प्रजा में क्षोभ घना था।
भौतिक-विप्लव देख
विकल वे थे घबराये,
राज-शरण में त्राण प्राप्त
करने को आये।
किंतु मिला अपमान
और व्यवहार बुरा था,
मनस्ताप से सब के
भीतर रोष भरा था।
क्षुब्ध निरखते वदन
इड़ा का पीला-पीला,
उधर प्रकृति की रुकी
नहीं थी तांड़व-लीला।
प्रागंण में थी भीड़ बढ़ रही
सब जुड़ आये,
प्रहरी-गण कर द्वार बंद
थे ध्यान लगाये।
रा्त्रि घनी-लालिमा-पटी
में दबी-लुकी-सी,
रह-रह होती प्रगट मेघ की
ज्योति झुकी सी।
मनु चिंतित से पड़े
शयन पर सोच रहे थे,
क्रोध और शंका के
श्वापद नोच रहे थे।
” मैं प्रजा बना कर
कितना तुष्ट हुआ था,
किंतु कौन कह सकता
इन पर रुष्ट हुआ था।
कितने जव से भर कर
इनका चक्र चलाया,
अलग-अलग ये एक
हुई पर इनकी छाया।
मैं नियमन के लिए
बुद्धि-बल से प्रयत्न कर,
इनको कर एकत्र,
चलाता नियम बना कर।
किंतु स्वयं भी क्या वह
सब कुछ मान चलूँ मैं,
तनिक न मैं स्वच्छंद,
स्वर्ण सा सदा गलूँ मैं
जो मेरी है सृष्टि
उसी से भीत रहूँ मैं,
क्या अधिकार नहीं कि
कभी अविनीत रहूँ मैं?
श्रद्धा का अधिकार
समर्पण दे न सका मैं,
प्रतिपल बढ़ता हुआ भला
कब वहाँ रुका मैं
इड़ा नियम-परतंत्र
चाहती मुझे बनाना,
निर्वाधित अधिकार
उसी ने एक न माना।
विश्व एक बन्धन
विहीन परिवर्त्तन तो है,
इसकी गति में रवि-
शशि-तारे ये सब जो हैं।
रूप बदलते रहते
वसुधा जलनिधि बनती,
उदधि बना मरूभूमि
जलधि में ज्वाला जलती
तरल अग्नि की दौड़
लगी है सब के भीतर,
गल कर बहते हिम-नग
सरिता-लीला रच कर।
यह स्फुलिग का नृत्य
एक पल आया बीता
टिकने कब मिला
किसी को यहाँ सुभीता?
कोटि-कोटि नक्षत्र
शून्य के महा-विवर में,
लास रास कर रहे
लटकते हुए अधर में।
उठती है पवनों के
स्तर में लहरें कितनी,
यह असंख्य चीत्कार
और परवशता इतनी।
यह नर्त्तन उन्मुक्त
विश्व का स्पंदन द्रुततर,
गतिमय होता चला
जा रहा अपने लय पर।
कभी-कभी हम वही
देखते पुनरावर्त्तन,
उसे मानते नियम
चल रहा जिससे जीवन।
रुदन हास बन किंतु
पलक में छलक रहे है,
शत-शत प्राण विमुक्ति
खोजते ललक रहे हैं।
जीवन में अभिशाप
शाप में ताप भरा है,
इस विनाश में सृष्टि-
कुंज हो रहा हरा है।
‘विश्व बँधा है एक नियम से’
यह पुकार-सी,
फैली गयी है इसके मन में
दृढ़ प्रचार-सी।
नियम इन्होंने परखा
फिर सुख-साधन जाना,
वशी नियामक रहे,
न ऐसा मैंने माना।
मैं-चिर-बंधन-हीन
मृत्यु-सीमा-उल्लघंन-
करता सतत चलूँगा
यह मेरा है दृढ़ प्रण।
महानाश की सृष्टि बीच
जो क्षण हो अपना,
चेतनता की तुष्टि वही है
फिर सब सपना।”
प्रगति मन रूका
इक क्षण करवट लेकर,
देखा अविचल इड़ा खड़ी
फिर सब कुछ देकर
और कह रही “किंतु
नियामक नियम न माने,
तो फिर सब कुछ नष्ट
हुआ निश्चय जाने।”
“ऐं तुम फिर भी यहाँ
आज कैसे चल आयी,
क्या कुछ और उपद्रव
की है बात समायी-
मन में, यह सब आज हुआ है
जो कुछ इतना
क्या न हुई तुष्टि?
बच रहा है अब कितना?”
“मनु, सब शासन स्वत्त्व
तुम्हारा सतत निबाहें,
तुष्टि, चेतना का क्षण
अपना अन्य न चाहें
आह प्रजापति यह
न हुआ है, कभी न होगा,
निर्वाधित अधिकार
आज तक किसने भोगा?”
यह मनुष्य आकार
चेतना का है विकसित,
एक विश्व अपने
आवरणों में हैं निर्मित
चिति-केन्द्रों में जो
संघर्ष चला करता है,
द्वयता का जो भाव सदा
मन में भरता है-
वे विस्मृत पहचान
रहे से एक-एक को,
होते सतत समीप
मिलाते हैं अनेक को।
स्पर्धा में जो उत्तम
ठहरें वे रह जावें,
संसृति का कल्याण करें
शुभ मार्ग बतावें।
व्यक्ति चेतना इसीलिए
परतंत्र बनी-सी,
रागपूर्ण, पर द्वेष-पंक में
सतत सनी सी।
नियत मार्ग में पद-पद
पर है ठोकर खाती,
अपने लक्ष्य समीप
श्रांत हो चलती जाती।
यह जीवन उपयोग,
यही है बुद्धि-साधना,
पना जिसमें श्रेय
यही सुख की अ’राधना।
लोक सुखी हों आश्रय लें
यदि उस छाया में,
प्राण सदृश तो रमो
राष्ट्र की इस काया में।
देश कल्पना काल
परिधि में होती लय है,
काल खोजता महाचेतना
में निज क्षय है।
वह अनंत चेतन
नचता है उन्मद गति से,
तुम भी नाचो अपनी
द्वयता में-विस्मृति में।
क्षितिज पटी को उठा
बढो ब्रह्मांड विवर में,
गुंजारित घन नाद सुनो
इस विश्व कुहर में।
ताल-ताल पर चलो
नहीं लय छूटे जिसमें,
तुम न विवादी स्वर
छेडो अनजाने इसमें।
“अच्छा यह तो फिर न
तुम्हें समझाना है अब,
तुम कितनी प्रेरणामयी
हो जान चुका सब।
किंतु आज ही अभी
लौट कर फिर हो आयी,
कैसे यह साहस की
मन में बात समायी
आह प्रजापति होने का
अधिकार यही क्या
अभिलाषा मेरी अपूर्णा
ही सदा रहे क्या?
मैं सबको वितरित करता
ही सतत रहूँ क्या?
कुछ पाने का यह प्रयास
है पाप, सहूँ क्या?
तुमने भी प्रतिदिन दिया
कुछ कह सकती हो?
मुझे ज्ञान देकर ही
जीवित रह सकती हो?
जो मैं हूँ चाहता वही
जब मिला नहीं है,
तब लौटा लो व्यर्थ
बात जो अभी कही है।”
“इड़े मुझे वह वस्तु
चाहिये जो मैं चाहूँ,
तुम पर हो अधिकार,
प्रजापति न तो वृथा हूँ।
तुम्हें देखकर बंधन ही
अब टूट रहा सब,
शासन या अधिकार
चाहता हूँ न तनिक अब।
देखो यह दुर्धर्ष
प्रकृति का इतना कंपन
मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र
है इसका स्पंदन
इस कठोर ने प्रलय
खेल है हँस कर खेला
किंतु आज कितना
कोमल हो रहा अकेला?
तुम कहती हो विश्व
एक लय है, मैं उसमें
लीन हो चलूँ? किंतु
धरा है क्या सुख इसमें।
क्रंदन का निज अलग
एक आकाश बना लूँ,
उस रोदन में अट्टाहास
हो तुमको पा लूँ।
फिर से जलनिधि उछल
बहे मर्य्यादा बाहर,
फिर झंझा हो वज्र-
प्रगति से भीतर बाहर,
फिर डगमड हो नाव
लहर ऊपर से भागे,
रवि-शशि-तारा
सावधान हों चौंके जागें,
किंतु पास ही रहो
बालिके मेरी हो, तुम,
मैं हूँ कुछ खिलवाड
नहीं जो अब खेलो तुम?”
किंतु वह सत्य बना था,
इड़ा संकुचित उधर
प्रजा में क्षोभ घना था।
भौतिक-विप्लव देख
विकल वे थे घबराये,
राज-शरण में त्राण प्राप्त
करने को आये।
किंतु मिला अपमान
और व्यवहार बुरा था,
मनस्ताप से सब के
भीतर रोष भरा था।
क्षुब्ध निरखते वदन
इड़ा का पीला-पीला,
उधर प्रकृति की रुकी
नहीं थी तांड़व-लीला।
प्रागंण में थी भीड़ बढ़ रही
सब जुड़ आये,
प्रहरी-गण कर द्वार बंद
थे ध्यान लगाये।
रा्त्रि घनी-लालिमा-पटी
में दबी-लुकी-सी,
रह-रह होती प्रगट मेघ की
ज्योति झुकी सी।
मनु चिंतित से पड़े
शयन पर सोच रहे थे,
क्रोध और शंका के
श्वापद नोच रहे थे।
” मैं प्रजा बना कर
कितना तुष्ट हुआ था,
किंतु कौन कह सकता
इन पर रुष्ट हुआ था।
कितने जव से भर कर
इनका चक्र चलाया,
अलग-अलग ये एक
हुई पर इनकी छाया।
मैं नियमन के लिए
बुद्धि-बल से प्रयत्न कर,
इनको कर एकत्र,
चलाता नियम बना कर।
किंतु स्वयं भी क्या वह
सब कुछ मान चलूँ मैं,
तनिक न मैं स्वच्छंद,
स्वर्ण सा सदा गलूँ मैं
जो मेरी है सृष्टि
उसी से भीत रहूँ मैं,
क्या अधिकार नहीं कि
कभी अविनीत रहूँ मैं?
श्रद्धा का अधिकार
समर्पण दे न सका मैं,
प्रतिपल बढ़ता हुआ भला
कब वहाँ रुका मैं
इड़ा नियम-परतंत्र
चाहती मुझे बनाना,
निर्वाधित अधिकार
उसी ने एक न माना।
विश्व एक बन्धन
विहीन परिवर्त्तन तो है,
इसकी गति में रवि-
शशि-तारे ये सब जो हैं।
रूप बदलते रहते
वसुधा जलनिधि बनती,
उदधि बना मरूभूमि
जलधि में ज्वाला जलती
तरल अग्नि की दौड़
लगी है सब के भीतर,
गल कर बहते हिम-नग
सरिता-लीला रच कर।
यह स्फुलिग का नृत्य
एक पल आया बीता
टिकने कब मिला
किसी को यहाँ सुभीता?
कोटि-कोटि नक्षत्र
शून्य के महा-विवर में,
लास रास कर रहे
लटकते हुए अधर में।
उठती है पवनों के
स्तर में लहरें कितनी,
यह असंख्य चीत्कार
और परवशता इतनी।
यह नर्त्तन उन्मुक्त
विश्व का स्पंदन द्रुततर,
गतिमय होता चला
जा रहा अपने लय पर।
कभी-कभी हम वही
देखते पुनरावर्त्तन,
उसे मानते नियम
चल रहा जिससे जीवन।
रुदन हास बन किंतु
पलक में छलक रहे है,
शत-शत प्राण विमुक्ति
खोजते ललक रहे हैं।
जीवन में अभिशाप
शाप में ताप भरा है,
इस विनाश में सृष्टि-
कुंज हो रहा हरा है।
‘विश्व बँधा है एक नियम से’
यह पुकार-सी,
फैली गयी है इसके मन में
दृढ़ प्रचार-सी।
नियम इन्होंने परखा
फिर सुख-साधन जाना,
वशी नियामक रहे,
न ऐसा मैंने माना।
मैं-चिर-बंधन-हीन
मृत्यु-सीमा-उल्लघंन-
करता सतत चलूँगा
यह मेरा है दृढ़ प्रण।
महानाश की सृष्टि बीच
जो क्षण हो अपना,
चेतनता की तुष्टि वही है
फिर सब सपना।”
प्रगति मन रूका
इक क्षण करवट लेकर,
देखा अविचल इड़ा खड़ी
फिर सब कुछ देकर
और कह रही “किंतु
नियामक नियम न माने,
तो फिर सब कुछ नष्ट
हुआ निश्चय जाने।”
“ऐं तुम फिर भी यहाँ
आज कैसे चल आयी,
क्या कुछ और उपद्रव
की है बात समायी-
मन में, यह सब आज हुआ है
जो कुछ इतना
क्या न हुई तुष्टि?
बच रहा है अब कितना?”
“मनु, सब शासन स्वत्त्व
तुम्हारा सतत निबाहें,
तुष्टि, चेतना का क्षण
अपना अन्य न चाहें
आह प्रजापति यह
न हुआ है, कभी न होगा,
निर्वाधित अधिकार
आज तक किसने भोगा?”
यह मनुष्य आकार
चेतना का है विकसित,
एक विश्व अपने
आवरणों में हैं निर्मित
चिति-केन्द्रों में जो
संघर्ष चला करता है,
द्वयता का जो भाव सदा
मन में भरता है-
वे विस्मृत पहचान
रहे से एक-एक को,
होते सतत समीप
मिलाते हैं अनेक को।
स्पर्धा में जो उत्तम
ठहरें वे रह जावें,
संसृति का कल्याण करें
शुभ मार्ग बतावें।
व्यक्ति चेतना इसीलिए
परतंत्र बनी-सी,
रागपूर्ण, पर द्वेष-पंक में
सतत सनी सी।
नियत मार्ग में पद-पद
पर है ठोकर खाती,
अपने लक्ष्य समीप
श्रांत हो चलती जाती।
यह जीवन उपयोग,
यही है बुद्धि-साधना,
पना जिसमें श्रेय
यही सुख की अ’राधना।
लोक सुखी हों आश्रय लें
यदि उस छाया में,
प्राण सदृश तो रमो
राष्ट्र की इस काया में।
देश कल्पना काल
परिधि में होती लय है,
काल खोजता महाचेतना
में निज क्षय है।
वह अनंत चेतन
नचता है उन्मद गति से,
तुम भी नाचो अपनी
द्वयता में-विस्मृति में।
क्षितिज पटी को उठा
बढो ब्रह्मांड विवर में,
गुंजारित घन नाद सुनो
इस विश्व कुहर में।
ताल-ताल पर चलो
नहीं लय छूटे जिसमें,
तुम न विवादी स्वर
छेडो अनजाने इसमें।
“अच्छा यह तो फिर न
तुम्हें समझाना है अब,
तुम कितनी प्रेरणामयी
हो जान चुका सब।
किंतु आज ही अभी
लौट कर फिर हो आयी,
कैसे यह साहस की
मन में बात समायी
आह प्रजापति होने का
अधिकार यही क्या
अभिलाषा मेरी अपूर्णा
ही सदा रहे क्या?
मैं सबको वितरित करता
ही सतत रहूँ क्या?
कुछ पाने का यह प्रयास
है पाप, सहूँ क्या?
तुमने भी प्रतिदिन दिया
कुछ कह सकती हो?
मुझे ज्ञान देकर ही
जीवित रह सकती हो?
जो मैं हूँ चाहता वही
जब मिला नहीं है,
तब लौटा लो व्यर्थ
बात जो अभी कही है।”
“इड़े मुझे वह वस्तु
चाहिये जो मैं चाहूँ,
तुम पर हो अधिकार,
प्रजापति न तो वृथा हूँ।
तुम्हें देखकर बंधन ही
अब टूट रहा सब,
शासन या अधिकार
चाहता हूँ न तनिक अब।
देखो यह दुर्धर्ष
प्रकृति का इतना कंपन
मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र
है इसका स्पंदन
इस कठोर ने प्रलय
खेल है हँस कर खेला
किंतु आज कितना
कोमल हो रहा अकेला?
तुम कहती हो विश्व
एक लय है, मैं उसमें
लीन हो चलूँ? किंतु
धरा है क्या सुख इसमें।
क्रंदन का निज अलग
एक आकाश बना लूँ,
उस रोदन में अट्टाहास
हो तुमको पा लूँ।
फिर से जलनिधि उछल
बहे मर्य्यादा बाहर,
फिर झंझा हो वज्र-
प्रगति से भीतर बाहर,
फिर डगमड हो नाव
लहर ऊपर से भागे,
रवि-शशि-तारा
सावधान हों चौंके जागें,
किंतु पास ही रहो
बालिके मेरी हो, तुम,
मैं हूँ कुछ खिलवाड
नहीं जो अब खेलो तुम?”