स्वप्न / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

कामायनी सकल अपना सुख

स्वप्न बना-सा देख रही,

युग-युग की वह विकल प्रतारित

मिटी हुई बन लेख रही-


जो कुसुमों के कोमल दल से

कभी पवन पर अकिंत था,

आज पपीहा की पुकार बन-

नभ में खिंचती रेख रही।


इड़ा अग्नि-ज्वाला-सी

आगे जलती है उल्लास भरी,

मनु का पथ आलोकित करती

विपद-नदी में बनी तरी,


उन्नति का आरोहण, महिमा

शैल-श्रृंग सी श्रांति नहीं,

तीव्र प्रेरणा की धारा सी

बही वहाँ उत्साह भरी।


वह सुंदर आलोक किरन सी

हृदय भेदिनी दृष्टि लिये,

जिधर देखती-खुल जाते हैं

तम ने जो पथ बंद किये।


मनु की सतत सफलता की

वह उदय विजयिनी तारा थी,

आश्रय की भूखी जनता ने

निज श्रम के उपहार दिये


मनु का नगर बसा है सुंदर

सहयोगी हैं सभी बने,

दृढ़ प्राचीरों में मंदिर के

द्वार दिखाई पड़े घने,


वर्षा धूप शिशिर में छाया

के साधन संपन्न हुये,

खेतों में हैं कृषक चलाते हल

प्रमुदित श्रम-स्वेद सने।


उधर धातु गलते, बनते हैं

आभूषण औ’ अस्त्र नये,

कहीं साहसी ले आते हैं

मृगया के उपहार नये,


पुष्पलावियाँ चुनती हैं बन-

कुसुमों की अध-विकच कली,

गंध चूर्ण था लोध्र कुसुम रज,

जुटे नवीन प्रसाधन ये।


घन के आघातों से होती जो

प्रचंड ध्वनि रोष भरी,

तो रमणी के मधुर कंठ से

हृदय मूर्छना उधर ढरी,


अपने वर्ग बना कर श्रम का

करते सभी उपाय वहाँ,

उनकी मिलित-प्रयत्न-प्रथा से

पुर की श्री दिखती निखरी।


देश का लाघव करते

वे प्राणी चंचल से हैं,

सुख-साधन एकत्र कर रहे

जो उनके संबल में हैं,


बढे़ ज्ञान-व्यवसाय, परिश्रम,

बल की विस्मृत छाया में,

नर-प्रयत्न से ऊपर आवे

जो कुछ वसुधा तल में है।


सृष्टि-बीज अंकुरित, प्रफुल्लित

सफल हो रहा हरा भरा,

प्रलय बीव भी रक्षित मनु से

वह फैला उत्साह भरा,


आज स्वचेतन-प्राणी अपनी

कुशल कल्पनायें करके,

स्वावलंब की दृढ़ धरणी

पर खड़ा, नहीं अब रहा डरा।


श्रद्धा उस आश्चर्य-लोक में

मलय-बालिका-सी चलती,

सिंहद्वार के भीतर पहुँची,

खड़े प्रहरियों को छलती,


ऊँचे स्तंभों पर वलभी-युत

बने रम्य प्रासाद वहाँ,

धूप-धूप-सुरभित-गृह,

जिनमें थी आलोक-शिखा जलती।


स्वर्ण-कलश-शोभित भवनों से

लगे हुए उद्यान बने,

ऋजु-प्रशस्त, पथ बीव-बीच में,

कहीं लता के कुंज घने,


जिनमें दंपति समुद विहरते,

प्यार भरे दे गलबाहीं,

गूँज रहे थे मधुप रसीले,

मदिरा-मोद पराग सने।


देवदारू के वे प्रलंब भुज,

जिनमें उलझी वायु-तरंग,

मिखरित आभूषण से कलरव

करते सुंदर बाल-विहंग,


आश्रय देता वेणु-वनों से

निकली स्वर-लहरी-ध्वनि को,

नाग-केसरों की क्यारी में

अन्य सुमन भी थे बहुरंग


नव मंडप में सिंहासन

सम्मुख कितने ही मंच तहाँ,

एक ओर रखे हैं सुन्दर मढ़ें

चर्म से सुखद जहाँ,


आती है शैलेय-अगुरु की

धूम-गंध आमोद-भरी,

श्रद्धा सोच रही सपने में

‘यह लो मैं आ गयी कहाँ’


और सामने देखा निज

दृढ़ कर में चषक लिये,

मनु, वह क्रतुमय पुरुष वही

मुख संध्या की लालिमा पिये।


मादक भाव सामने, सुंदर

एक चित्र सा कौन यहाँ,

जिसे देखने को यह जीवन

मर-मर कर सौ बार जिये-


इड़ा ढालती थी वह आसव,

जिसकी बुझती प्यास नहीं,

तृषित कंठ को, पी-पीकर भी

जिसमें है विश्वास नहीं,


वह-वैश्वानर की ज्वाला-सी-

मंच वेदिका पर बैठी,

सौमनस्य बिखराती शीतल,

जड़ता का कुछ भास नहीं।


मनु ने पूछा “और अभी कुछ

करने को है शेष यहाँ?”

बोली इड़ा “सफल इतने में

अभी कर्म सविशेष कहाँ


क्या सब साधन स्ववश हो चुके?”

नहीं अभी मैं रिक्त रहा-

देश बसाया पर उज़ड़ा है

सूना मानस-देश यहाँ।


सुंदर मुख, आँखों की आशा,

किंतु हुए ये किसके हैं,

एक बाँकपन प्रतिपद-शशि का,

भरे भाव कुछ रिस के हैं,


कुछ अनुरोध मान-मोचन का

करता आँखों में संकेत,

बोल अरी मेरी चेतनते

तू किसकी, ये किसके हैं?”


“प्रजा तुम्हारी, तुम्हें प्रजापति

सबका ही गुनती हूँ मैं,

वह संदेश-भरा फिर कैसा

नया प्रश्न सुनती हूँ मैं”


“प्रजा नहीं, तुम मेरी रानी

मुझे न अब भ्रम में डालो,

मधुर मराली कहो ‘प्रणय के

मोती अब चुनती हूँ मैं’


मेरा भाग्य-गगन धुँधला-सा,

प्राची-पट-सी तुम उसमें,

खुल कर स्वयं अचानक कितनी

प्रभापूर्ण हो छवि-यश में


मैं अतृप्त आलोक-भिखारी

ओ प्रकाश-बालिके बता,

कब डूबेगी प्यास हमारी

इन मधु-अधरों के रस में?


‘ये सुख साधन और रुपहली-

रातों की शीतल-छाया,

स्वर-संचरित दिशायें, मन है

उन्मद और शिथिल काया,


तब तुम प्रजा बनो मत रानी”

नर-पशु कर हुंकार उठा,

उधर फैलती मदिर घटा सी

अंधकार की घन-माया।


आलिंगन फिर भय का क्रदंन

वसुधा जैसे काँप उठी

वही अतिचारी, दुर्बल नारी-

परित्राण-पथ नाप उठी


अंतरिक्ष में हुआ रुद्र-हुंकार

भयानक हलचल थी,

अरे आत्मजा प्रजा पाप की

परिभाषा बन शाप उठी।


उधर गगन में क्षुब्ध हुई

सब देव शक्तियाँ क्रोध भरी,

रुद्र-नयन खुल गया अचानक-

व्याकुल काँप रही नगरी,


अतिचारी था स्वयं प्रजापति,

देव अभी शिव बने रहें

नहीं, इसी से चढ़ी शिजिनी

अजगव पर प्रतिशोध भरी।


प्रकृति त्रस्त थी, भूतनाथ ने

नृत्य विकंपित-पद अपना-

उधर उठाया, भूत-सृष्टि सब

होने जाती थी सपना


आश्रय पाने को सब व्याकुल,

स्वयं-कलुष में मनु संदिग्ध,

फिर कुछ होगा, यही समझ कर

वसुधा का थर-थर कँपना।


काँप रहे थे प्रलयमयी

क्रीड़ा से सब आशंकित जंतु,

अपनी-अपनी पड़ी सभी को,

छिन्न स्नेह को कोमल तंतु,


आज कहाँ वह शासन था

जो रक्षा का था भार लिये,

इड़ा क्रोध लज्जा से भर कर

बाहर निकल चली थि किंतु।


देखा उसने, जनता व्याकुल

राजद्वार कर रुद्ध रही,

प्रहरी के दल भी झुक आये

उनके भाव विशुद्ध नहीं,


नियमन एक झुकाव दबा-सा

टूटे या ऊपर उठ जाय

प्रजा आज कुछ और सोचती

अब तक तो अविरुद्ध रही


कोलाहल में घिर, छिप बैठे

मनु कुछ सोच विचार भरे,

द्वार बंद लख प्रजा त्रस्त-सी,

कैसे मन फिर धैर्य्य धरे


शक्त्ति-तरंगों में आन्दोलन,

रुद्र-क्रोध भीषणतम था,

महानील-लोहित-ज्वाला का

नृत्य सभी से उधर परे।


वह विज्ञानमयी अभिलाषा,

पंख लगाकर उड़ने की,

जीवन की असीम आशायें

कभी न नीचे मुड़ने की,


अधिकारों की सृष्टि और

उनकी वह मोहमयी माया,

वर्गों की खाँई बन फैली

कभी नहीं जो जुड़ने की।


असफल मनु कुछ क्षुब्ध हो उठे,

आकस्मिक बाधा कैसी-

समझ न पाये कि यह हुआ क्या,

प्रजा जुटी क्यों आ ऐसी


परित्राण प्रार्थना विकल थी

देव-क्रोध से बन विद्रोह,

इड़ा रही जब वहाँ स्पष्ट ही

वह घटना कुचक्र जैसी।


“द्वार बंद कर दो इनको तो

अब न यहाँ आने देना,

प्रकृति आज उत्पाद कर रही,

मुझको बस सोने देना”


कह कर यों मनु प्रकट क्रोध में,

किंतु डरे-से थे मन में,

शयन-कक्ष में चले सोचते

जीवन का लेना-देना।


श्रद्धा काँप उठी सपने में

सहसा उसकी आँख खुली,

यह क्या देखा मैंने? कैसे

वह इतना हो गया छली?


स्वजन-स्नेह में भय की

कितनी आशंकायें उठ आतीं,

अब क्या होगा, इसी सोच में

व्याकुल रजनी बीत चली।

स्वप्न / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

संध्या अरुण जलज केसर ले

अब तक मन थी बहलाती,

मुरझा कर कब गिरा तामरस,

उसको खोज कहाँ पाती


क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता

मलिन कालिमा के कर से,

कोकिल की काकली वृथा ही

अब कलियों पर मँडराती।


कामायनी-कुसुम वसुधा पर पड़ी,

न वह मकरंद रहा,

एक चित्र बस रेखाओं का,

अब उसमें है रंग कहाँ


वह प्रभात का हीनकला शशि-

किरन कहाँ चाँदनी रही,

वह संध्या थी-रवि, शशि,तारा

ये सब कोई नहीं जहाँ।


जहाँ तामरस इंदीवर या

सित शतदल हैं मुरझाये-

अपने नालों पर, वह सरसी

श्रद्धा थी, न मधुप आये,


वह जलधर जिसमें चपला

या श्यामलता का नाम नहीं,

शिशिर-कला की क्षीण-स्रोत

वह जो हिमचल में जम जाये।


एक मौन वेदना विजन की,

झिल्ली की झनकार नहीं,

जगती अस्पष्ट-उपेक्षा,

एक कसक साकार रही।


हरित-कुंज की छाया भर-थी

वसुधा-आलिगंन करती,

वह छोटी सी विरह-नदी थी

जिसका है अब पार नहीं।


नील गगन में उडती-उडती

विहग-बालिका सी किरनें,

स्वप्न-लोक को चलीं थकी सी

नींद-सेज पर जा गिरने।


किंतु, विरहिणी के जीवन में

एक घड़ी विश्राम नहीं-

बिजली-सी स्मृति चमक उठी तब,

लगे जभी तम-घन घिरने।


संध्या नील सरोरूह से जो

श्याम पराग बिखरते थे,

शैल-घाटियों के अंचल को

वो धीरे से भरते थे-


तृण-गुल्मों से रोमांचित नग

सुनते उस दुख की गाथा,

श्रद्धा की सूनी साँसों से

मिल कर जो स्वर भरते थे-


“जीवन में सुख अधिक या कि दुख,

मंदाकिनि कुछ बोलोगी?

नभ में नखत अधिक,

सागर में या बुदबुद हैं गिन दोगी?


प्रतिबिंब हैं तारा तुम में

सिंधु मिलन को जाती हो,

या दोनों प्रतिबिंबित एक के

इस रहस्य को खोलोगी


इस अवकाश-पटी पर

जितने चित्र बिगडते बनते हैं,

उनमें कितने रंग भरे जो

सुरधनु पट से छनते हैं,


किंतु सकल अणु पल में घुल कर

व्यापक नील-शून्यता सा,

जगती का आवरण वेदना का

धूमिल-पट बुनते हैं।


दग्ध-श्वास से आह न निकले

सजल कुहु में आज यहाँ

कितना स्नेह जला कर जलता

ऐसा है लघु-दीप कहाँ?


बुझ न जाय वह साँझ-किरन सी

दीप-शिखा इस कुटिया की,

शलभ समीप नहीं तो अच्छा,

सुखी अकेले जले यहाँ


आज सुनूँ केवल चुप होकर,

कोकिल जो चाहे कह ले,

पर न परागों की वैसी है

चहल-पहल जो थी पहले।


इस पतझड़ की सूनी डाली

और प्रतीक्षा की संध्या,

काकायनि तू हृदय कडा कर

धीरे-धीरे सब सह ले


बिरल डालियों के निकुंज

सब ले दुख के निश्वास रहे,

उस स्मृति का समीर चलता है

मिलन कथा फिर कौन कहे?


आज विश्व अभिमानी जैसे

रूठ रहा अपराध बिना,

किन चरणों को धोयेंगे जो

अश्रु पलक के पार बहे


अरे मधुर है कष्ट पूर्ण भी

जीवन की बीती घडियाँ-

जब निस्सबंल होकर कोई

जोड़ रहा बिखरी कड़ियाँ।


वही एक जो सत्य बना था

चिर-सुंदरता में अपनी,

छिपा कहीं, तब कैसे सुलझें

उलझी सुख-दुख की लड़ियाँ


विस्मृत हों बीती बातें,

अब जिनमें कुछ सार नहीं,

वह जलती छाती न रही

अब वैसा शीतल प्यार नहीं


सब अतीत में लीन हो चलीं

आशा, मधु-अभिलाषायें,

प्रिय की निष्ठुर विजय हुई,

पर यह तो मेरी हार नहीं


वे आलिंगन एक पाश थे,

स्मिति चपला थी, आज कहाँ?

और मधुर विश्वास अरे वह

पागल मन का मोह रहा


वंचित जीवन बना समर्पण

यह अभिमान अकिंचन का,

कभी दे दिया था कुछ मैंने,

ऐसा अब अनुमान रहा।


विनियम प्राणों का यह कितना

भयसंकुल व्यापार अरे

देना हो जितना दे दे तू,

लेना कोई यह न करे


परिवर्त्तन की तुच्छ प्रतीक्षा

पूरी कभी न हो सकती,

संध्या रवि देकर पाती है

इधर-उधर उडुगन बिखरे


वे कुछ दिन जो हँसते आये

अंतरिक्ष अरुणाचल से,

फूलों की भरमार स्वरों का

कूजन लिये कुहक बल से।


फैल गयी जब स्मिति की माया,

किरन-कली की क्रीड़ा से,

चिर-प्रवास में चले गये

वे आने को कहकर छल से


जब शिरीष की मधुर गंध से

मान-भरी मधुऋतु रातें,

रूठ चली जातीं रक्तिम-मुख,

न सह जागरण की घातें,


दिवस मधुर आलाप कथा-सा

कहता छा जाता नभ में,

वे जगते-सपने अपने तब

तारा बन कर मुसक्याते।”


वन बालाओं के निकुंज सब

भरे वेणु के मधु स्वर से

लौट चुके थे आने वाले

सुन पुकार हपने घर से,


किन्तु न आया वह परदेसी-

युग छिप गया प्रतीक्षा में,

रजनी की भींगी पलकों से

तुहिन बिंदु कण-कण बरसे


मानस का स्मृति-शतदल खिलता,

झरते बिंदु मरंद घने,

मोती कठिन पारदर्शी ये,

इनमें कितने चित्र बने


आँसू सरल तरल विद्युत्कण,

नयनालोक विरह तम में,

प्रान पथिक यह संबल लेकर

लगा कल्पना-जग रचने।


अरूण जलज के शोण कोण थे

नव तुषार के बिंदु भरे,

मुकुर चूर्ण बन रहे, प्रतिच्छवि

कितनी साथ लिये बिखरे


वह अनुराग हँसी दुलार की

पंक्ति चली सोने तम में,

वर्षा-विरह-कुहू में जलते

स्मृति के जुगनू डरे-डरे।


सूने गिरि-पथ में गुंजारित

श्रृंगनाद की ध्वनि चलती,

आकांक्षा लहरी दुख-तटिनी

पुलिन अंक में थी ढलती।


जले दीप नभ के, अभिलाषा-

शलभ उड़े, उस ओर चले,

भरा रह गया आँखों में जल,

बुझी न वह ज्वाला जलती।


“माँ”-फिर एक किलक दूरागत,

गूँज उठी कुटिया सूनी,

माँ उठ दौड़ी भरे हृदय में

लेकर उत्कंठा दूनी।


लुटरी खुली अलक, रज-धूसर

बाँहें आकर लिपट गयीं,

निशा-तापसी की जलने को

धधक उठो बुझती धूनी


कहाँ रहा नटखट तू फिरता

अब तक मेरा भाग्य बना

अरे पिता के प्रतिनिधि

तूने भी सुख-दुख तो दिया घना,


चंचल तू, बनचर-मृग बन कर

भरता है चौकड़ी कहीं,

मैं डरती तू रूठ न जाये

करती कैसे तुझे मना”


“मैं रूठूँ माँ और मना तू,

कितनी अच्छी बात कही

ले मैं अब सोता हूँ जाकर,

बोलूँगा मैं आज नहीं,


पके फलों से पेट भरा है

नींद नहीं खुलने वाली।”

श्रद्धा चुबंन ले प्रसन्न

कुछ-कुछ विषाद से भरी रही


जल उठते हैं लघु जीवन के

मधुर-मधुर वे पल हलके,

मुक्त उदास गगन के उर में

छाले बन कर जा झलके।


दिवा-श्रांत-आलोक-रश्मियाँ

नील-निलय में छिपी कहीं,

करुण वही स्वर फिर उस

संसृति में बह जाता है गल के।


प्रणय किरण का कोमल बंधन

मुक्ति बना बढ़ता जाता,

दूर, किंतु कितना प्रतिपल

वह हृदय समीप हुआ जाता


मधुर चाँदनी सी तंद्रा

जब फैली मूर्छित मानस पर,

तब अभिन्न प्रेमास्पद उसमें

अपना चित्र बना जाता।


इड़ा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

वह प्रेम न रह जाये पुनीत

अपने स्वार्थों से आवृत

हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत

सारी संसृति हो विरह भरी,


गाते ही बीतें करुण गीत

आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो

क्षितिज निराशा सदा रक्त

तुम राग-विराग करो सबसे


अपने को कर शतशः विभक्त

मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध,

दोनों में हो सद्भाव नहीं

वह चलने को जब कहे कहीं


तब हृदय विकल चल जाय कहीं

रोकर बीते सब वर्त्तमान

क्षण सुंदर अपना हो अतीत

पेंगों में झूलें हार-जीत।


संकुचित असीम अमोघ शक्ति

जीवन को बाधा-मय पथ पर

ले चले मेद से भरी भक्ति

या कभी अपूर्ण अहंता में हो


रागमयी-सी महासक्ति

व्यापकता नियति-प्रेरणा बन

अपनी सीमा में रहे बंद

सर्वज्ञ-ज्ञान का क्षुद्र-अशं


विद्या बनकर कुछ रचे छंद

करत्तृत्व-सकल बनकर आवे

नश्वर-छाया-सी ललित-कला

नित्यता विभाजित हो पल-पल में


काल निरंतर चले ढला

तुम समझ न सको, बुराई से

शुभ-इच्छा की है बड़ी शक्ति

हो विफल तर्क से भरी युक्ति।


जीवन सारा बन जाये युद्ध

उस रक्त, अग्नि की वर्षा में

बह जायँ सभी जो भाव शुद्ध

अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम


अपने ही होकर विरूद्ध

अपने को आवृत किये रहो

दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप

वसुधा के समतल पर उन्नत


चलता फिरता हो दंभ-स्तूप

श्रद्धा इस संसृति की रहस्य-

व्यापक, विशुद्ध, विश्वासमयी

सब कुछ देकर नव-निधि अपनी


तुमसे ही तो वह छली गयी

हो वर्त्तमान से वंचित तुम

अपने भविष्य में रहो रुद्ध

सारा प्रपंच ही हो अशुद्ध।


तुम जरा मरण में चिर अशांत

जिसको अब तक समझे थे

सब जीवन परिवर्त्तन अनंत

अमरत्व, वही भूलेगा तुम


व्याकुल उसको कहो अंत

दुखमय चिर चिंतन के प्रतीक

श्रद्धा-वमचक बनकर अधीर

मानव-संतति ग्रह-रश्मि-रज्जु से


भाग्य बाँध पीटे लकीर

‘कल्याण भूमि यह लोक’

यही श्रद्धा-रहस्य जाने न प्रजा।

अतिचारी मिथ्या मान इसे


परलोक-वंचना से भरा जा

आशाओं में अपने निराश

निज बुद्धि विभव से रहे भ्रांत

वह चलता रहे सदैव श्रांत।”


अभिशाप-प्रतिध्वनि हुई लीन

नभ-सागर के अंतस्तल में

जैसे छिप जाता महा मीन

मृदु-मरूत्-लहर में फेनोपम


तारागण झिलमिल हुए दीन

निस्तब्ध मौन था अखिल लोक

तंद्रालस था वह विजन प्रांत

रजनी-तम-पूंजीभूत-सदृश


मनु श्वास ले रहे थे अशांत

वे सोच रहे थे” आज वही

मेरा अदृष्ट बन फिर आया

जिसने डाली थी जीवन पर


पहले अपनी काली छाया

लिख दिया आज उसने भविष्य

यातना चलेगी अंतहीन

अब तो अवशिष्ट उपाय भी न।”


करती सरस्वती मधुर नाद

बहती थी श्यामल घाटी में

निर्लिप्त भाव सी अप्रमाद

सब उपल उपेक्षित पड़े रहे


जैसे वे निष्ठुर जड़ विषाद

वह थी प्रसन्नता की धारा

जिसमें था केवल मधुर गान

थी कर्म-निरंतरता-प्रतीक


चलता था स्ववश अनंत-ज्ञान

हिम-शीतल लहरों का रह-रह

कूलों से टकराते जाना

आलोक अरुण किरणों का उन पर


अपनी छाया बिखराना-

अदभुत था निज-निर्मित-पथ का

वह पथिक चल रहा निर्विवाद

कहता जाता कुछ सुसंवाद।


प्राची में फैला मधुर राग

जिसके मंडल में एक कमल

खिल उठा सुनहला भर पराग

जिसके परिमल से व्याकुल हो


श्यामल कलरव सब उठे जाग

आलोक-रश्मि से बुने उषा-

अंचल में आंदोलन अमंद

करता प्रभात का मधुर पवन


सब ओर वितरने को मरंद

उस रम्य फलक पर नवल चित्र सी

प्रकट हुई सुंदर बाला

वह नयन-महोत्सव की प्रतीक


अम्लान-नलिन की नव-माला

सुषमा का मंडल सुस्मित-सा

बिखरता संसृति पर सुराग

सोया जीवन का तम विराग।


वह विश्व मुकुट सा उज्जवलतम

शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल

दो पद्म-पलाश चषक-से दृग

देते अनुराग विराग ढाल


गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश

वह आनन जिसमें भरा गान

वक्षस्थल पर एकत्र धरे

संसृति के सब विज्ञान ज्ञान


था एक हाथ में कर्म-कलश

वसुधा-जीवन-रस-सार लिये

दूसरा विचारों के नभ को था

मधुर अभय अवलंब दिये


त्रिवली थी त्रिगुण-तरंगमयी,

आलोक-वसन लिपटा अराल

चरणों में थी गति भरी ताल।

नीरव थी प्राणों की पुकार


मूर्छित जीवन-सर निस्तरंग

नीहार घिर रहा था अपार

निस्तब्ध अलस बन कर सोयी

चलती न रही चंचल बयार


पीता मन मुकुलित कंज आप

अपनी मधु बूँदे मधुर मौन

निस्वन दिगंत में रहे रुद्ध

सहसा बोले मनु ” अरे कौन-


आलोकमयी स्मिति-चेतना

आयी यह हेमवती छाया’

तंद्रा के स्वप्न तिरोहित थे

बिखरी केवल उजली माया


वह स्पर्श-दुलार-पुलक से भर

बीते युग को उठता पुकार

वीचियाँ नाचतीं बार-बार।

प्रतिभा प्रसन्न-मुख सहज खोल


वह बोली-” मैं हूँ इड़ा, कहो

तुम कौन यहाँ पर रहे डोल”

नासिका नुकीली के पतले पुट

फरक रहे कर स्मित अमोल


” मनु मेरा नाम सुनो बाले

मैं विश्व पथिक स रहा क्लेश।”

” स्वागत पर देख रहे हो तुम

यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश


भौति हलचल से यह

चंचल हो उठा देश ही था मेरा

इसमें अब तक हूँ पड़ी

इस आशा से आये दिन मेरा।”


” मैं तो आया हूँ- देवि बता दो

जीवन का क्या सहज मोल

भव के भविष्य का द्वार खोल

इस विश्वकुहर में इंद्रजाल


जिसने रच कर फैलाया है

ग्रह, तारा, विद्युत, नखत-माल

सागर की भीषणतम तरंग-सा

खेल रहा वह महाकाल


तब क्या इस वसुधा के

लघु-लघु प्राणी को करने को सभीत

उस निष्ठुर की रचना कठोर

केवल विनाश की रही जीत


तब मूर्ख आज तक क्यों समझे हैं

सृष्टि उसे जो नाशमयी

उसका अधिपति होगा कोई,

जिस तक दुख की न पुकार गयी


सुख नीड़ों को घेरे रहता

अविरत विषाद का चक्रवाल

किसने यह पट है दिया डाल

शनि का सुदूर वह नील लोक


जिसकी छाया-फैला है

ऊपर नीचे यह गगन-शोक

उसके भी परे सुना जाता

कोई प्रकाश का महा ओक


वह एक किरण अपनी देकर

मेरी स्वतंत्रता में सहाय

क्या बन सकता है? नियति-जाल से

मुक्ति-दान का कर उपाय।”


कोई भी हो वह क्या बोले,

पागल बन नर निर्भर न करे

अपनी दुर्बलता बल सम्हाल

गंतव्य मार्ग पर पैर धरे-


मत कर पसार-निज पैरों चल,

चलने की जिसको रहे झोंक

उसको कब कोई सके रोक?

हाँ तुम ही हो अपने सहाय?


जो बुद्धि कहे उसको न मान कर

फिर किसकी नर शरण जाय

जितने विचार संस्कार रहे

उनका न दूसरा है उपाय


यह प्रकृति, परम रमणीय

अखिल-ऐश्वर्य-भरी शोधक विहीन

तुम उसका पटल खोलने में परिकर

कस कर बन कर्मलीन


सबका नियमन शासन करते

बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता

तुम ही इसके निर्णायक हो,

हो कहीं विषमता या समता


तुम जड़ा को चैतन्या करो

विज्ञान सहज साधन उपाय

यश अखिल लोक में रहे छाय।”

हँस पड़ा गगन वह शून्य लोक


जिसके भीतर बस कर उजड़े

कितने ही जीवन मरण शोक

कितने हृदयों के मधुर मिलन

क्रंदन करते बन विरह-कोक


ले लिया भार अपने सिर पर

मनु ने यह अपना विषम आज

हँस पड़ी उषा प्राची-नभ में

देखे नर अपना राज-काज


चल पड़ी देखने वह कौतुक

चंचल मलयाचल की बाला

लख लाली प्रकृति कपोलों में

गिरता तारा दल मतवाला


उन्निद्र कमल-कानन में

होती थी मधुपों की नोक-झोंक

वसुधा विस्मृत थी सकल-शोक।

“जीवन निशीथ का अधंकार


भग रहा क्षितिज के अंचल में

मुख आवृत कर तुमको निहार

तुम इड़े उषा-सी आज यहाँ

आयी हो बन कितनी उदार


कलरव कर जाग पड़े

मेरे ये मनोभाव सोये विहंग

हँसती प्रसन्नता चाव भरी

बन कर किरनों की सी तरंग


अवलंब छोड़ कर औरों का

जब बुद्धिवाद को अपनाया

मैं बढा सहज, तो स्वयं

बुद्धि को मानो आज यहाँ पाया


मेरे विकल्प संकल्प बनें,

जीवन ही कर्मों की पुकार

सुख साधन का हो खुला द्वार।”

इड़ा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

वह प्रेम न रह जाये पुनीत

अपने स्वार्थों से आवृत

हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत

सारी संसृति हो विरह भरी,


गाते ही बीतें करुण गीत

आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो

क्षितिज निराशा सदा रक्त

तुम राग-विराग करो सबसे


अपने को कर शतशः विभक्त

मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध,

दोनों में हो सद्भाव नहीं

वह चलने को जब कहे कहीं


तब हृदय विकल चल जाय कहीं

रोकर बीते सब वर्त्तमान

क्षण सुंदर अपना हो अतीत

पेंगों में झूलें हार-जीत।


संकुचित असीम अमोघ शक्ति

जीवन को बाधा-मय पथ पर

ले चले मेद से भरी भक्ति

या कभी अपूर्ण अहंता में हो


रागमयी-सी महासक्ति

व्यापकता नियति-प्रेरणा बन

अपनी सीमा में रहे बंद

सर्वज्ञ-ज्ञान का क्षुद्र-अशं


विद्या बनकर कुछ रचे छंद

करत्तृत्व-सकल बनकर आवे

नश्वर-छाया-सी ललित-कला

नित्यता विभाजित हो पल-पल में


काल निरंतर चले ढला

तुम समझ न सको, बुराई से

शुभ-इच्छा की है बड़ी शक्ति

हो विफल तर्क से भरी युक्ति।


जीवन सारा बन जाये युद्ध

उस रक्त, अग्नि की वर्षा में

बह जायँ सभी जो भाव शुद्ध

अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम


अपने ही होकर विरूद्ध

अपने को आवृत किये रहो

दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप

वसुधा के समतल पर उन्नत


चलता फिरता हो दंभ-स्तूप

श्रद्धा इस संसृति की रहस्य-

व्यापक, विशुद्ध, विश्वासमयी

सब कुछ देकर नव-निधि अपनी


तुमसे ही तो वह छली गयी

हो वर्त्तमान से वंचित तुम

अपने भविष्य में रहो रुद्ध

सारा प्रपंच ही हो अशुद्ध।


तुम जरा मरण में चिर अशांत

जिसको अब तक समझे थे

सब जीवन परिवर्त्तन अनंत

अमरत्व, वही भूलेगा तुम


व्याकुल उसको कहो अंत

दुखमय चिर चिंतन के प्रतीक

श्रद्धा-वमचक बनकर अधीर

मानव-संतति ग्रह-रश्मि-रज्जु से


भाग्य बाँध पीटे लकीर

‘कल्याण भूमि यह लोक’

यही श्रद्धा-रहस्य जाने न प्रजा।

अतिचारी मिथ्या मान इसे


परलोक-वंचना से भरा जा

आशाओं में अपने निराश

निज बुद्धि विभव से रहे भ्रांत

वह चलता रहे सदैव श्रांत।”


अभिशाप-प्रतिध्वनि हुई लीन

नभ-सागर के अंतस्तल में

जैसे छिप जाता महा मीन

मृदु-मरूत्-लहर में फेनोपम


तारागण झिलमिल हुए दीन

निस्तब्ध मौन था अखिल लोक

तंद्रालस था वह विजन प्रांत

रजनी-तम-पूंजीभूत-सदृश


मनु श्वास ले रहे थे अशांत

वे सोच रहे थे” आज वही

मेरा अदृष्ट बन फिर आया

जिसने डाली थी जीवन पर


पहले अपनी काली छाया

लिख दिया आज उसने भविष्य

यातना चलेगी अंतहीन

अब तो अवशिष्ट उपाय भी न।”


करती सरस्वती मधुर नाद

बहती थी श्यामल घाटी में

निर्लिप्त भाव सी अप्रमाद

सब उपल उपेक्षित पड़े रहे


जैसे वे निष्ठुर जड़ विषाद

वह थी प्रसन्नता की धारा

जिसमें था केवल मधुर गान

थी कर्म-निरंतरता-प्रतीक


चलता था स्ववश अनंत-ज्ञान

हिम-शीतल लहरों का रह-रह

कूलों से टकराते जाना

आलोक अरुण किरणों का उन पर


अपनी छाया बिखराना-

अदभुत था निज-निर्मित-पथ का

वह पथिक चल रहा निर्विवाद

कहता जाता कुछ सुसंवाद।


प्राची में फैला मधुर राग

जिसके मंडल में एक कमल

खिल उठा सुनहला भर पराग

जिसके परिमल से व्याकुल हो


श्यामल कलरव सब उठे जाग

आलोक-रश्मि से बुने उषा-

अंचल में आंदोलन अमंद

करता प्रभात का मधुर पवन


सब ओर वितरने को मरंद

उस रम्य फलक पर नवल चित्र सी

प्रकट हुई सुंदर बाला

वह नयन-महोत्सव की प्रतीक


अम्लान-नलिन की नव-माला

सुषमा का मंडल सुस्मित-सा

बिखरता संसृति पर सुराग

सोया जीवन का तम विराग।


वह विश्व मुकुट सा उज्जवलतम

शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल

दो पद्म-पलाश चषक-से दृग

देते अनुराग विराग ढाल


गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश

वह आनन जिसमें भरा गान

वक्षस्थल पर एकत्र धरे

संसृति के सब विज्ञान ज्ञान


था एक हाथ में कर्म-कलश

वसुधा-जीवन-रस-सार लिये

दूसरा विचारों के नभ को था

मधुर अभय अवलंब दिये


त्रिवली थी त्रिगुण-तरंगमयी,

आलोक-वसन लिपटा अराल

चरणों में थी गति भरी ताल।

नीरव थी प्राणों की पुकार


मूर्छित जीवन-सर निस्तरंग

नीहार घिर रहा था अपार

निस्तब्ध अलस बन कर सोयी

चलती न रही चंचल बयार


पीता मन मुकुलित कंज आप

अपनी मधु बूँदे मधुर मौन

निस्वन दिगंत में रहे रुद्ध

सहसा बोले मनु ” अरे कौन-


आलोकमयी स्मिति-चेतना

आयी यह हेमवती छाया’

तंद्रा के स्वप्न तिरोहित थे

बिखरी केवल उजली माया


वह स्पर्श-दुलार-पुलक से भर

बीते युग को उठता पुकार

वीचियाँ नाचतीं बार-बार।

प्रतिभा प्रसन्न-मुख सहज खोल


वह बोली-” मैं हूँ इड़ा, कहो

तुम कौन यहाँ पर रहे डोल”

नासिका नुकीली के पतले पुट

फरक रहे कर स्मित अमोल


” मनु मेरा नाम सुनो बाले

मैं विश्व पथिक स रहा क्लेश।”

” स्वागत पर देख रहे हो तुम

यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश


भौति हलचल से यह

चंचल हो उठा देश ही था मेरा

इसमें अब तक हूँ पड़ी

इस आशा से आये दिन मेरा।”


” मैं तो आया हूँ- देवि बता दो

जीवन का क्या सहज मोल

भव के भविष्य का द्वार खोल

इस विश्वकुहर में इंद्रजाल


जिसने रच कर फैलाया है

ग्रह, तारा, विद्युत, नखत-माल

सागर की भीषणतम तरंग-सा

खेल रहा वह महाकाल


तब क्या इस वसुधा के

लघु-लघु प्राणी को करने को सभीत

उस निष्ठुर की रचना कठोर

केवल विनाश की रही जीत


तब मूर्ख आज तक क्यों समझे हैं

सृष्टि उसे जो नाशमयी

उसका अधिपति होगा कोई,

जिस तक दुख की न पुकार गयी


सुख नीड़ों को घेरे रहता

अविरत विषाद का चक्रवाल

किसने यह पट है दिया डाल

शनि का सुदूर वह नील लोक


जिसकी छाया-फैला है

ऊपर नीचे यह गगन-शोक

उसके भी परे सुना जाता

कोई प्रकाश का महा ओक


वह एक किरण अपनी देकर

मेरी स्वतंत्रता में सहाय

क्या बन सकता है? नियति-जाल से

मुक्ति-दान का कर उपाय।”


कोई भी हो वह क्या बोले,

पागल बन नर निर्भर न करे

अपनी दुर्बलता बल सम्हाल

गंतव्य मार्ग पर पैर धरे-


मत कर पसार-निज पैरों चल,

चलने की जिसको रहे झोंक

उसको कब कोई सके रोक?

हाँ तुम ही हो अपने सहाय?


जो बुद्धि कहे उसको न मान कर

फिर किसकी नर शरण जाय

जितने विचार संस्कार रहे

उनका न दूसरा है उपाय


यह प्रकृति, परम रमणीय

अखिल-ऐश्वर्य-भरी शोधक विहीन

तुम उसका पटल खोलने में परिकर

कस कर बन कर्मलीन


सबका नियमन शासन करते

बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता

तुम ही इसके निर्णायक हो,

हो कहीं विषमता या समता


तुम जड़ा को चैतन्या करो

विज्ञान सहज साधन उपाय

यश अखिल लोक में रहे छाय।”

हँस पड़ा गगन वह शून्य लोक


जिसके भीतर बस कर उजड़े

कितने ही जीवन मरण शोक

कितने हृदयों के मधुर मिलन

क्रंदन करते बन विरह-कोक


ले लिया भार अपने सिर पर

मनु ने यह अपना विषम आज

हँस पड़ी उषा प्राची-नभ में

देखे नर अपना राज-काज


चल पड़ी देखने वह कौतुक

चंचल मलयाचल की बाला

लख लाली प्रकृति कपोलों में

गिरता तारा दल मतवाला


उन्निद्र कमल-कानन में

होती थी मधुपों की नोक-झोंक

वसुधा विस्मृत थी सकल-शोक।

“जीवन निशीथ का अधंकार


भग रहा क्षितिज के अंचल में

मुख आवृत कर तुमको निहार

तुम इड़े उषा-सी आज यहाँ

आयी हो बन कितनी उदार


कलरव कर जाग पड़े

मेरे ये मनोभाव सोये विहंग

हँसती प्रसन्नता चाव भरी

बन कर किरनों की सी तरंग


अवलंब छोड़ कर औरों का

जब बुद्धिवाद को अपनाया

मैं बढा सहज, तो स्वयं

बुद्धि को मानो आज यहाँ पाया


मेरे विकल्प संकल्प बनें,

जीवन ही कर्मों की पुकार

सुख साधन का हो खुला द्वार।”

इड़ा / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

“किस गहन गुहा से अति अधीर

झंझा-प्रवाह-सा निकला

यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर

ले साथ विकल परमाणु-पुंज।


नभ, अनिल, अनल,

भयभीत सभी को भय देता।

भय की उपासना में विलीन

प्राणी कटुता को बाँट रहा।


जगती को करता अधिक दीन

निर्माण और प्रतिपद-विनाश में।

दिखलाता अपनी क्षमता

संघर्ष कर रहा-सा सब से।


सब से विराग सब पर ममता

अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब।

यह छूट पड़ा है विषम तीर

किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?



जो अचल हिमानी से रंजित

देखे मैंने वे शैल-श्रृंग।

अपने जड़-गौरव के प्रतीक

उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग।



वसुधा का कर अभिमान भंग

अपनी समाधि में रहे सुखी,

बह जाती हैं नदियाँ अबोध

कुछ स्वेद-बिंदु उसके लेकर,


वह स्मित-नयन गत शोक-क्रोध

स्थिर-मुक्ति, प्रतिष्ठा मैं वैसी

चाहता नहीं इस जीवन की

मैं तो अबाध गति मरुत-सदृश,


हूँ चाह रहा अपने मन की

जो चूम चला जाता अग-जग।

प्रति-पग में कंपन की तरंग

वह ज्वलनशील गतिमय पतंग।


अपनी ज्वाला से कर प्रकाश

जब छोड़ चला आया सुंदर

प्रारंभिक जीवन का निवास

वन, गुहा, कुंज, मरू-अंचल में हूँ


खोज रहा अपना विकास

पागल मैं, किस पर सदय रहा-

क्या मैंने ममता ली न तोड़

किस पर उदारता से रीझा-


किससे न लगा दी कड़ी होड़?

इस विजन प्रांत में बिलख रही

मेरी पुकार उत्तर न मिला

लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-


कब मुझसे कोई फूल खिला?

मैं स्वप्न देखत हूँ उजड़ा-

कल्पना लोक में कर निवास

देख कब मैंने कुसुम हास


इस दुखमय जीवन का प्रकाश

नभ-नील लता की डालों में

उलझा अपने सुख से हताश

कलियाँ जिनको मैं समझ रहा


वे काँटे बिखरे आस-पास

कितना बीहड़-पथ चला और

पड़ रहा कहीं थक कर नितांत

उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर-


रोता मैं निर्वासित अशांत

इस नियति-नटी के अति भीषण

अभिनय की छाया नाच रही

खोखली शून्यता में प्रतिपद-


असफलता अधिक कुलाँच रही

पावस-रजनी में जुगनू गण को

दौड़ पकड़ता मैं निराश

उन ज्योति कणों का कर विनाश


जीवन-निशीथ के अंधकार

तू, नील तुहिन-जल-निधि बन कर

फैला है कितना वार-पार

कितनी चेतनता की किरणें हैं


डूब रहीं ये निर्विकार

कितना मादकतम, निखिल भुवन

भर रहा भूमिका में अबंग

तू, मूर्त्तिमान हो छिप जाता


प्रतिपल के परिवर्त्तन अनंग

ममता की क्षीण अरुण रेख

खिलती है तुझमें ज्योति-कला

जैसे सुहागिनी की ऊर्मिल


अलकों में कुंकुमचूर्ण भला

रे चिरनिवास विश्राम प्राण के

मोह-जलद-छया उदार

मायारानी के केशभार


जीवन-निशीथ के अंधकार

तू घूम रहा अभिलाषा के

नव ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार

जिसमें अपूर्ण-लालसा, कसक


चिनगारी-सी उठती पुकार

यौवन मधुवन की कालिंदी

बह रही चूम कर सब दिंगत

मन-शिशु की क्रीड़ा नौकायें


बस दौड़ लगाती हैं अनंत

कुहुकिनि अपलक दृग के अंजन

हँसती तुझमें सुंदर छलना

धूमिल रेखाओं से सजीव


चंचल चित्रों की नव-कलना

इस चिर प्रवास श्यामल पथ में

छायी पिक प्राणों की पुकार-

बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार


उजड़ा सूना नगर-प्रांत

जिसमें सुख-दुख की परिभाषा

विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत

निज विकृत वक्र रेखाओं से,


प्राणी का भाग्य बनी अशांत

कितनी सुखमय स्मृतियाँ,

अपूर्णा रूचि बन कर मँडराती विकीर्ण

इन ढेरों में दुखभरी कुरूचि


दब रही अभी बन पात्र जीर्ण

आती दुलार को हिचकी-सी

सूने कोनों में कसक भरी।

इस सूखर तरु पर मनोवृति


आकाश-बेलि सी रही हरी

जीवन-समाधि के खँडहर पर जो

जल उठते दीपक अशांत

फिर बुझ जाते वे स्वयं शांत।


यों सोच रहे मनु पड़े श्रांत

श्रद्धा का सुख साधन निवास

जब छोड़ चले आये प्रशांत

पथ-पथ में भटक अटकते वे


आये इस ऊजड़ नगर-प्रांत

बहती सरस्वती वेग भरी

निस्तब्ध हो रही निशा श्याम

नक्षत्र निरखते निर्मिमेष


वसुधा को वह गति विकल वाम

वृत्रघ्नी का व जनाकीर्ण

उपकूल आज कितना सूना

देवेश इंद्र की विजय-कथा की


स्मृति देती थी दुख दूना

वह पावन सारस्वत प्रदेश

दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत

फैला था चारों ओर ध्वांत।


“जीवन का लेकर नव विचार

जब चला द्वंद्व था असुरों में

प्राणों की पूजा का प्रचार

उस ओर आत्मविश्वास-निरत


सुर-वर्ग कह रहा था पुकार-

मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-

मंगल उपासना में विभोर

उल्लासशीलता मैं शक्ति-केन्द्र,


किसकी खोजूँ फिर शरण और

आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्त्रोत

जीवन-विकास वैचित्र्य भरा

अपना नव-नव निर्माण किये


रखता यह विश्व सदैव हरा,

प्राणों के सुख-साधन में ही,

संलग्न असुर करते सुधार

नियमों में बँधते दुर्निवार


था एक पूजता देह दीन

दूसरा अपूर्ण अहंता में

अपने को समझ रहा प्रवीण

दोनों का हठ था दुर्निवार,


दोनों ही थे विश्वास-हीन-

फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से

वे सिद्ध करें-क्यों हि न युद्ध

उनका संघर्ष चला अशांत


वे भाव रहे अब तक विरुद्ध

मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह

स्वातंत्र्यमयी उच्छृंखलता

हो प्रलय-भीत तन रक्षा में


पूजन करने की व्याकुलता

वह पूर्व द्वंद्व परिवर्त्तित हो

मुझको बना रहा अधिक दीन-

सचमुच मैं हूँ श्रद्धा-विहीन।”


मनु तुम श्रद्धाको गये भूल

उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को

उडा़ दिया था समझ तूल

तुमने तो समझा असत् विश्व


जीवन धागे में रहा झूल

जो क्षण बीतें सुख-साधन में

उनको ही वास्तव लिया मान

वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी,


यह उलटी मति का व्यर्थ-ज्ञान

तुम भूल गये पुरुषत्त्व-मोह में

कुछ सत्ता है नारी की

समरसता है संबंध बनी


अधिकार और अधिकारी की।”

जब गूँजी यह वाणी तीखी

कंपित करती अंबर अकूल

मनु को जैसे चुभ गया शूल।


“यह कौन? अरे वही काम

जिसने इस भ्रम में है डाला

छीना जीवन का सुख-विराम?

प्रत्यक्ष लगा होने अतीत


जिन घड़ियों का अब शेष नाम

वरदान आज उस गतयुग का

कंपित करता है अंतरंग

अभिशाप ताप की ज्वाला से


जल रहा आज मन और अंग-“

बोले मनु-” क्या भ्रांत साधना

में ही अब तक लगा रहा

क्ा तुमने श्रद्धा को पाने


के लिए नहीं सस्नेह कहा?

पाया तो, उसने भी मुझको

दे दिया हृदय निज अमृत-धाम

फिर क्यों न हुआ मैं पूर्ण-काम?”


“मनु उसने त कर दिया दान

वह हृदय प्रणय से पूर्ण सरल

जिसमें जीवन का भरा मान

जिसमें चेतना ही केवल


निज शांत प्रभा से ज्योतिमान

पर तुमने तो पाया सदैव

उसकी सुंदर जड़ देह मात्र

सौंदर्य जलधि से भर लाये


केवल तुम अपना गरल पात्र

तुम अति अबोध, अपनी अपूर्णता को

न स्वयं तुम समझ सके

परिणय जिसको पूरा करता


उससे तुम अपने आप रुके

कुछ मेरा हो’ यह राग-भाव

संकुचित पूर्णता है अजान

मानस-जलनिधि का क्षुद्र-यान।


हाँ अब तुम बनने को स्वतंत्र

सब कलुष ढाल कर औरों पर

रखते हो अपना अलग तंत्र

द्वंद्वों का उद्गम तो सदैव


शाश्वत रहता वह एक मंत्र

डाली में कंटक संग कुसुम

खिलते मिलते भी हैं नवीन

अपनी रुचि से तुम बिधे हुए


जिसको चाहे ले रहे बीन

तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का

प्रणय-प्रकाश न ग्रहण किया

हाँ, जलन वासना को जीवन


भ्रम तम में पहला स्थान दिया-

अब विकल प्रवर्त्तन हो ऐसा जो

नियति-चक्र का बने यंत्र

हो शाप भरा तव प्रजातंत्र।


यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि

द्वयता मेम लगी निरंतर ही

वर्णों की करति रहे वृष्टि

अनजान समस्यायें गढती


रचती हों अपनी विनिष्टि

कोलाहल कलह अनंत चले,

एकता नष्ट हो बढे भेद

अभिलषित वस्तु तो दूर रहे,


हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद

हृदयों का हो आवरण सदा

अपने वक्षस्थल की जड़ता

पहचान सकेंगे नहीं परस्पर


चले विश्व गिरता पड़ता

सब कुछ भी हो यदि पास भरा

पर दूर रहेगी सदा तुष्टि

दुख देगी यह संकुचित दृष्टि।


अनवरत उठे कितनी उमंग

चुंबित हों आँसू जलधर से

अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग

जीवन-नद हाहाकार भरा-


हो उठती पीड़ा की तरंग

लालसा भरे यौवन के दिन

पतझड़ से सूखे जायँ बीत

संदेह नये उत्पन्न रहें


उनसे संतप्त सदा सभीत

फैलेगा स्वजनों का विरोध

बन कर तम वाली श्याम-अमा

दारिद्रय दलित बिलखाती हो यह


शस्यश्यामला प्रकृति-रमा

दुख-नीरद में बन इंद्रधनुष

बदले नर कितने नये रंग-

बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग।

ईर्ष्या / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

“चमड़े उनके आवरण रहे

ऊनों से चले मेरा काम।

वे जीवित हों मांसल बनकर

हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम।


वे द्रोह न करने के स्थल हैं

जो पाले जा सकते सहेतु।

पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं

तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।”


“मैं यह तो मान नहीं सकता

सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ।

जीवन का जो संघर्ष चले

वह विफल रहे हम चल जायँ।


काली आँखों की तारा में

मैं देखूँ अपना चित्र धन्य।

मेरा मानस का मुकुर रहे

प्रतिबिबित तुमसे ही अनन्य।


श्रद्धे यह नव संकल्प नहीं

चलने का लघु जीवन अमोल।

मैं उसको निश्चय भोग चलूँ

जो सुख चलदल सा रहा डोल।


देखा क्या तुमने कभी नहीं

स्वर्गीय सुखों पर प्रलय-नृत्य?

फिर नाश और चिर-निद्रा है

तब इतना क्यों विश्वास सत्य?


यह चिर-प्रशांत-मंगल की

क्यों अभिलाषा इतनी रही जाग?

यह संचित क्यों हो रहा स्नेह

किस पर इतनी हो सानुराग?


यह जीवन का वरदान-मुझे

दे दो रानी-अपना दुलार।

केवल मेरी ही चिंता का

तव-चित्त वहन कर रहे भार।


मेरा सुंदर विश्राम बना सृजता

हो मधुमय विश्व एक।

जिसमें बहती हो मधु-धारा

लहरें उठती हों एक-एक।”


“मैंने तो एक बनाया है

चल कर देखो मेरा कुटीर।”

यों कहकर श्रद्धा हाथ पकड़

मनु को वहाँ ले चली अधीर।


उस गुफा समीप पुआलों की

छाजन छोटी सी शांति-पुंज।

कोमल लतिकाओं की डालें

मिल सघन बनाती जहाँ कुंज।


थे वातायन भी कटे हुए

प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र।

आवें क्षण भर तो चल जायँ

रूक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।


उसमें था झूला वेतसी——————————-

लता का सुरूचिपूर्ण,

बिछ रहा धरातल पर चिकना

सुमनों का कोमल सुरभि-चूर्ण।


कितनी मीठी अभिलाषायें

उसमें चुपके से रहीं घूम।

कितने मंगल के मधुर गान

उसके कानों को रहे चूम।


मनु देख रहे थे चकित नया यह

गृहलक्ष्मी का गृह-विधान।

पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा

‘यह क्यों’? किसका सुख साभिमान?’


चुप थे पर श्रद्धा ही बोली

“देखो यह तो बन गया नीड़।

पर इसमें कलरव करने को

आकुल न हो रही अभी भीड़।


तुम दूर चले जाते हो जब

तब लेकर तकली, यहाँ बैठ।

मैं उसे फिराती रहती हूँ

अपनी निर्जनता बीच पैठ।


मैं बैठी गाती हूँ तकली के

प्रतिवर्त्तन में स्वर विभोर।

‘चल री तकली धीरे-धीरे

प्रिय गये खेलने को अहेर’।


जीवन का कोमल तंतु बढ़े

तेरी ही मंजुलता समान।

चिर-नग्न प्राण उनमें लिपटे

सुंदरता का कुछ बढ़े मान।


किरनों-सी तू बुन दे उज्ज्वल

मेरे मधु-जीवन का प्रभात।

जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल

ढँक ले प्रकाश से नवल गात।


वासना भरी उन आँखों पर

आवरण डाल दे कांतिमान।

जिसमें सौंदर्य निखर आवे

लतिका में फुल्ल-कुसुम-समान।


अब वह आगंतुक गुफा बीच

पशु सा न रहे निर्वसन-नग्न।

अपने अभाव की जड़ता में वह

रह न सकेगा कभी मग्न।


सूना रहेगा मेरा यह लघु-

विश्व कभी जब रहोगे न।

मैं उसके लिये बिछाऊँगी

फूलों के रस का मृदुल फेन।


झूले पर उसे झुलाऊँगी

दुलरा कर लूँगी बदन चूम।

मेरी छाती से लिपटा इस

घाटी में लेगा सहज घूम।


वह आवेगा मृदु मलयज-सा

लहराता अपने मसृण बाल।

उसके अधरों से फैलेगी

नव मधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल।


अपनी मीठी रसना से वह

बोलेगा ऐसे मधुर बोल।

मेरी पीड़ा पर छिड़केगी जो

कुसुम-धूलि मकरंद घोल।


मेरी आँखों का सब पानी

तब बन जायेगा अमृत स्निग्ध।

उन निर्विकार नयनों में जब

देखूँगी अपना चित्र मुग्ध।”


“तुम फूल उठोगी लतिका सी

कंपित कर सुख सौरभ तरंग।

मैं सुरभि खोजता भटकूँगा

वन-वन बन कस्तूरी कुरंग।


यह जलन नहीं सह सकता मैं

चाहिये मुझे मेरा ममत्व।

इस पंचभूत की रचना में मैं

रमण करूँ बन एक तत्त्व।


यह द्वैत, अरे यह विधा तो

है प्रेम बाँटने का प्रकार।

भिक्षुक मैं ना, यह कभी नहीं

मैं लौटा लूँगा निज विचार।


तुम दानशीलता से अपनी बन

सजल जलद बितरो न बिन्दु।

इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा

बन सकल कलाधर शरद-इंदु।


भूले कभी निहारोगी कर

आकर्षणमय हास एक।

मायाविनि मैं न उसे लूँगा

वरदान समझ कर-जानु टेक।


इस दीन अनुग्रह का मुझ पर

तुम बोझ डालने में समर्थ।

अपने को मत समझो श्रद्धे

होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ।


तुम अपने सुख से सुखी रहो

मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र।

‘मन की परवशता महा-दुःख’

मैं यही जपूँगा महामंत्र।


लो चला आज मैं छोड़ यहीं

संचित संवेदन-भार-पुंज।

मुझको काँटे ही मिलें धन्य

हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।”


कह, ज्वलनशील अंतर लेकर

मनु चले गये, था शून्य प्रांत।

“रुक जा, सुन ले ओ निर्मोही”

वह कहती रही अधीर श्रांत।

ईर्ष्या / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

पल भर की उस चंचलता ने

खो दिया हृदय का स्वाधिकार।

श्रद्धा की अब वह मधुर निशा

फैलाती निष्फल अंधकार।


मनु को अब मृगया छोड़, नहीं

रह गया और था अधिक काम।

लग गया रक्त था उस मुख में

हिंसा-सुख लाली से ललाम।


हिंसा ही नहीं, और भी कुछ

वह खोज रहा था मन अधीर।

अपने प्रभुत्व की सुख सीमा

जो बढ़ती हो अवसाद चीर।


जो कुछ मनु के करतलगत था

उसमें न रहा कुछ भी नवीन।

श्रद्धा का सरल विनोद नहीं

रुचता अब था बन रहा दीन।


उठती अंतस्तल से सदैव

दुर्ललित लालसा जो कि कांत।

वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो

दब जाती अपने आप शांत।


“निज उद्गम का मुख बंद किये

कब तक सोयेंगे अलस प्राण।

जीवन की चिर चंचल पुकार

रोये कब तक, है कहाँ त्राण।


श्रद्धा का प्रणय और उसकी

आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति।

जिसमें व्याकुल आलिंगन का

अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति।


भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं

नव-नव स्मित रेखा में विलीन।

अनुरोध न तो उल्लास नहीं

कुसुमोद्गम-सा कुछ भी नवीन।


आती है वाणी में न कभी

वह चाव भरी लीला-हिलोर।

जिसमें नूतनता नृत्यमयी

इठलाती हो चंचल मरोर।


जब देखो बैठी हुई वहीं

शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत।

या अन्न इकट्ठे करती है

होती न तनिक सी कभी क्लांत।


बीजों का संग्रह और इधर

चलती है तकली भरी गीत।

सब कुछ लेकर बैठी है वह,

मेरा अस्तित्व हुआ अतीत”


लौटे थे मृगया से थक कर

दिखलाई पडता गुफा-द्वार।

पर और न आगे बढने की

इच्छा होती, करते विचार।


मृग डाल दिया, फिर धनु को भी,

मनु बैठ गये शिथिलित शरीर।

बिखरे ते सब उपकरण वहीं

आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।


” पश्चिम की रागमयी संध्या

अब काली है हो चली, किंतु।

अब तक आये न अहेरी वे

क्या दूर ले गया चपल जंतु।


” यों सोच रही मन में अपने

हाथों में तकली रही घूम।

श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली

अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।


केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह

आँखों में आलस भरा स्नेह।

कुछ कृशता नई लजीली थी

कंपित लतिका-सी लिये देह।


मातृत्व-बोझ से झुके हुए

बँध रहे पयोधर पीन आज।

कोमल काले ऊनों की

नवपट्टिका बनाती रुचिर साज।


सोने की सिकता में मानों

कालिंदी बहती भर उसाँस।

स्वर्गंगा में इंदीवर की या

एक पंक्ति कर रही हास।


कटि में लिपटा था नवल-वसन

वैसा ही हलका बुना नील।

दुर्भर थी गर्भ-मधुर पीडा

झेलती जिसे जननी सलील।


श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा

भावी जननी का सरस गर्व।

बन कुसुम बिखरते थे भू पर

आया समीप था महापर्व।


मनु ने देखा जब श्रद्धा का

वह सहज-खेद से भरा रूप।

अपनी इच्छा का दृढ विरोध

जिसमें वे भाव नहीं अनूप।


वे कुछ भी बोले नहीं, रहे

चुपचाप देखते साधिकार।

श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी

ज्यों जान गई उनका विचार।


‘दिन भर थे कहाँ भटकते तुम’

बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-

“यह हिंसा इतनी है प्यारी

जो भुलवाती है देह-देह।


मैं यहाँ अकेली देख रही पथ

सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत।

कानन में जब तुम दौड़ रहे

मृग के पीछे बन कर अशांत


ढल गया दिवस पीला पीला

तुम रक्तारुण वन रहे घूम।

देखों नीडों में विहग-युगल

अपने शिशुओं को रहे चूम।


उनके घर में कोलाहल है

मेरा सूना है गुफा-द्वार।

तुमको क्या ऐसी कमी रही

जिसके हित जाते अन्य-द्वार?’


” श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं

पर मैं तो देख रहा अभाव।

भूली-सी कोई मधुर वस्तु

जैसे कर देती विकल घाव।


चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने

अवरुद्ध श्वास लेगा निरीह।

गतिहीन पंगु-सा पड़ा-पड़ा

ढह कर जैसे बन रहा डीह।


जब जड़-बंधन-सा एक मोह

कसता प्राणों का मृदु शरीर।

आकुलता और जकड़ने की

तब ग्रंथि तोडती हो अधीर।


हँस कर बोले, बोलते हुए

निकले मधु-निर्झर-ललित-गान।

गानों में उल्लास भरा

झूमें जिसमें बन मधुर प्रान।


वह आकुलता अब कहाँ रही

जिसमें सब कुछ ही जाय भूल।

आशा के कोमल तंतु-सदृश

तुम तकली में हो रही झूल।


यह क्यों, क्या मिलते नहीं

तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म?

तुम बीज बीनती क्यों? मेरा

मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।


तिस पर यह पीलापन कैसा

यह क्यों बुनने का श्रम सखेद?

यह किसके लिए, बताओ तो

क्या इसमें है छिप रहा भेद?”


” अपनी रक्षा करने में जो

चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र।

वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं

हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।


पर जो निरीह जीकर भी कुछ

उपकारी होने में समर्थ।

वे क्यों न जियें, उपयोगी बन

इसका मैं समझ सकी न अर्थ।

कर्म / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

“जीवन के वे निष्ठुर दंशन

जिनकी आतुर पीड़ा।

कलुष-चक्र सी नाच रही है

बन आँखों की क्रीड़ा।


स्खलन चेतना के कौशल का

भूल जिसे कहते हैं।

एक बिंदु जिसमें विषाद के

नद उमड़े रहते हैं।


आह वही अपराध

जगत की दुर्बलता की माया।

धरणी की वर्ज़ित मादकता

संचित तम की छाया।


नील-गरल से भरा हुआ

यह चंद्र-कपाल लिये हो।

इन्हीं निमीलित ताराओं में

कितनी शांति पिये हो।


अखिल विश्च का विष पीते हो

सृष्टि जियेगी फिर से।

कहो अमरता शीतलता इतनी

आती तुम्हें किधर से?


अचल अनंत नील लहरों पर

बैठे आसन मारे।

देव! कौन तुम, झरते तन से

श्रमकण से ये तारे।


इन चरणों में कर्म-कुसुम की

अंजलि वे दे सकते।

चले आ रहे छायापथ में

लोक-पथिक जो थकते।


किंतु कहाँ वह दुर्लभ उनको

स्वीकृति मिली तुम्हारी।

लौटाये जाते वे असफल

जैसे नित्य भिखारी।


प्रखर विनाशशील नर्तन में

विपुल विश्व की माया।

क्षण-क्षण होती प्रकट, नवीना

बनकर उसकी काया।


सदा पूर्णता पाने को

सब भूल किया करते क्या?

जीवन में यौवन लाने को

जी-जी कर मरते क्या?


यह व्यापार महा-गतिशाली

कहीं नहीं बसता क्या?

क्षणिक विनाशों में स्थिर मंगल

चुपके से हँसता क्या?


यह विराग संबंध हृदय का

कैसी यह मानवता!

प्राणी को प्राणी के प्रति

बस बची रही निर्ममता


जीवन का संतोष अन्य का

रोदन बन हँसता क्यों?

एक-एक विश्राम प्रगति को

परिकर सा कसता क्यों?


दुर्व्यवहार एक का

कैसे अन्य भूल जावेगा।

कौ उपाय गरल को कैसे

अमृत बना पावेगा”


जाग उठी थी तरल वासना

मिली रही मादकता।

मनु को कौन वहाँ आने से

भला रोक अब सकता।


खुले मृषण भुज़-मूलों से

वह आमंत्रण था मिलता।

उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख

लहरों-सा तिरता।


नीचा हो उठता जो

धीमे-धीमे निस्वासों में।

जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा

हिमकर के हासों में।


जागृत था सौंदर्य यद्यपि

वह सोती थी सुकुमारी।

रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी

आज़ निशा-सी नारी।


वे मांसल परमाणु किरण से

विद्युत थे बिखराते।

अलकों की डोरी में जीवन

कण-कण उलझे जाते।


विगत विचारों के श्रम-सीकर

बने हुए थे मोती।

मुख मंडल पर करुण कल्पना

उनको रही पिरोती।


छूते थे मनु और कटंकित

होती थी वह बेली।

स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी

जो अंग लता सी फैली।


वह पागल सुख इस जगती का

आज़ विराट बना था।

अंधकार-मिश्रित प्रकाश का

एक वितान तना था।


कामायनी जगी थी कुछ-कुछ

खोकर सब चेतनता।

मनोभाव आकार स्वयं हो

रहा बिगड़ता बनता।


जिसके हृदय सदा समीप है

वही दूर जाता है।

और क्रोध होता उस पर ही

जिससे कुछ नाता है।


प्रिय को ठुकरा कर भी

मन की माया उलझा लेती।

प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में

उसको लौटा देती।


जलदागम-मारुत से कंपित

पल्लव सदृश हथेली।

श्रद्धा की, धीरे से मनु ने

अपने कर में ले ली।


अनुनय वाणी में

आँखों में उपालंभ की छाया।

कहने लगे-“अरे यह कैसी

मानवती की माया।


स्वर्ग बनाया है जो मैंने

उसे न विफल बनाओ।

अरी अप्सरे! उस अतीत के

नूतन गान सुनाओ।


इस निर्ज़न में ज्योत्स्ना-पुलकित

विद्युत नभ के नीचे।

केवल हम तुम, और कौन?

रहो न आँखे मींचे।


आकर्षण से भरा विश्व यह

केवल भोग्य हमारा।

जीवन के दोनों कूलों में

बहे वासना धारा।


श्रम की, इस अभाव की जगती

उसकी सब आकुलता।

जिस क्षण भूल सकें हम

अपनी यह भीषण चेतनता।


वही स्वर्ग की बन अनंतता

मुसकाता रहता है।

दो बूँदों में जीवन का

रस लो बरबस बहता है।


देवों को अर्पित मधु-मिश्रित

सोम, अधर से छू लो।

मादकता दोला पर प्रेयसी!

आओ मिलकर झूलो।”


श्रद्धा जाग रही थी

तब भी छाई थी मादकता।

मधुर-भाव उसके तन-मन में

अपना हो रस छकता।


बोली एक सहज़ मुद्रा से

“यह तुम क्या कहते हो।

आज़ अभी तो किसी भाव की

धारा में बहते हो।


कल ही यदि परिवर्तन होगा

तो फिर कौन बचेगा।

क्या जाने कोई साथी

बन नूतन यज्ञ रचेगा।


और किसी की फिर बलि होगी

किसी देव के नाते।

कितना धोखा! उससे तो हम

अपना ही सुख पाते।


ये प्राणी जो बचे हुए हैं

इस अचला जगती के।

उनके कुछ अधिकार नहीं

क्या वे सब ही हैं फीके?


मनु! क्या यही तुम्हारी होगी

उज्ज्वल मानवता।————————————–

जिसमें सब कुछ ले लेना हो

हंत बची क्या शवता।”


“तुच्छ नहीं है अपना सुख भी

श्रद्धे! वह भी कुछ है।

दो दिन के इस जीवन का तो

वही चरम सब कुछ है।


इंद्रिय की अभिलाषा

जितनी सतत सफलता पावे।

जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी

मधुर-मधुर कुछ गावे।


रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में

मृदु मुसकान खिले तो।

आशाओं पर श्वास निछावर

होकर गले मिले तो।


विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख

मुकुर बनी रहती हो।

वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है

यह तुम क्या कहती हो?


जिसे खोज़ता फिरता मैं

इस हिमगिरि के अंचल में।

वही अभाव स्वर्ग बन

हँसता इस जीवन चंचल में।


वर्तमान जीवन के सुख से

योग जहाँ होता है।

छली-अदृष्ट अभाव बना

क्यों वहीं प्रकट होता है।


किंतु सकल कृतियों की

अपनी सीमा हैं हम ही तो।

पूरी हो कामना हमारी

विफल प्रयास नहीं तो”


एक अचेतनता लाती सी

सविनय श्रद्धा बोली।

“बचा जान यह भाव सृष्टि ने

फिर से आँखेँ खोलीं।


भेद-बुद्धि निर्मम ममता की

समझ, बची ही होगी।

प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी

लौट गयी ही होंगी।


अपने में सब कुछ भर

कैसे व्यक्ति विकास करेगा।

यह एकांत स्वार्थ भीषण है

अपना नाश करेगा।


औरों को हँसता देखो

मनु-हँसो और सुख पाओ।

अपने सुख को विस्तृत कर लो

सब को सुखी बनाओ।


रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ

यह यज्ञ पुरूष का जो है।

संसृति-सेवा भाग हमारा

उसे विकसने को है।


सुख को सीमित कर

अपने में केवल दुख छोड़ोगे।

इतर प्राणियों की पीड़ा

लख अपना मुँह मोड़ोगे।


ये मुद्रित कलियाँ दल में

सब सौरभ बंदी कर लें।

सरस न हों मकरंद बिंदु से

खुल कर, तो ये मर लें।


सूखे, झड़े और तब कुचले

सौरभ को पाओगे।

फिर आमोद कहाँ से मधुमय

वसुधा पर लाओगे।


सुख अपने संतोष के लिये

संग्रह मूल नहीं है।

उसमें एक प्रदर्शन

जिसको देखें अन्य वही है।


निर्ज़न में क्या एक अकेले

तुम्हें प्रमोद मिलेगा?

नहीं इसी से अन्य हृदय का

कोई सुमन खिलेगा।


सुख समीर पाकर

चाहे हो वह एकांत तुम्हारा।

बढ़ती है सीमा संसृति की

बन मानवता-धारा।”


हृदय हो रहा था उत्तेज़ित

बातें कहते-कहते।

श्रद्धा के थे अधर सूखते

मन की ज्वाला सहते।


उधर सोम का पात्र लिये मनु

समय देखकर बोले-

“श्रद्धे पी लो इसे बुद्धि के

बंधन को जो खोले।


वही करूँगा जो कहती हो सत्य

अकेला सुख क्या?”

यह मनुहार रुकेगा

प्याला पीने से फिर मुख क्या?


आँखें प्रिय आँखों में,

डूबे अरुण अधर थे रस में।

हृदय काल्पनिक-विज़य में

सुखी चेतनता नस-नस में।


छल-वाणी की वह प्रवंचना

हृदयों की शिशुता को।

खेल दिखाती, भुलवाती जो

उस निर्मल विभुता को।


जीनव का उद्देश्य लक्ष्य की

प्रगति दिशा को पल में।

अपने एक मधुर इंगित से

बदल सके जो छल में।


वही शक्ति अवलंब मनोहर

निज़ मनु को थी देती।

जो अपने अभिनय से

मन को सुख में उलझा लेती।


“श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी

यह भव रज़नी भीमा।

तुम बन जाओ इस ज़ीवन के

मेरे सुख की सीमा।


लज्जा का आवरण प्राण को

ढक लेता है तम से

उसे अकिंचन कर देता है

अलगाता ‘हम तुम’ से


कुचल उठा आनन्द,

यही है, बाधा, दूर हटाओ।

अपने ही अनुकूल सुखों को

मिलने दो मिल जाओ।”


और एक फिर व्याकुल चुम्बन

रक्त खौलता जिससे।

शीतल प्राण धधक उठता है

तृषा तृप्ति के मिस से।


दो काठों की संधि बीच

उस निभृत गुफा में अपने।

अग्नि शिखा बुझ गयी

जागने पर जैसे सुख सपने।

कर्म / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी

सोम लता तब मनु को।

चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर

उसने जीवन धनु को।


हुए अग्रसर से मार्ग में

छुटे-तीर-से-फिर वे।

यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से

रह न सके अब थिर वे।


भरा कान में कथन काम का

मन में नव अभिलाषा।

लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित

उमड़ रही थी आशा।


ललक रही थी ललित लालसा

सोमपान की प्यासी।

जीवन के उस दीन विभव में

जैसे बनी उदासी।


जीवन की अभिराम साधना

भर उत्साह खड़ी थी।

ज्यों प्रतिकूल पवन में तरणी

गहरे लौट पड़ी थी।


श्रद्धा के उत्साह वचन, फिर

काम प्रेरणा-मिल के।

भ्रांत अर्थ बन आगे आये

बने ताड़ थे तिल के।


बन जाता सिद्धांत प्रथम, फिर

पुष्टि हुआ करती है।

बुद्धि उसी ‌‌ऋण को सबसे

ले सदा भरा करती है।


मन जब निश्चित सा कर लेता

कोई मत है अपना।

बुद्धि दैव-बल से प्रमाण का

सतत निरखता सपना।


पवन वही हिलकोर उठाता

वही तरलता जल में।

वही प्रतिध्वनि अंतर तम की

छा जाती नभ थल में।


सदा समर्थन करती उसकी

तर्कशास्त्र की पीढ़ी।

“ठीक यही है सत्य! यही है

उन्नति सुख की सीढ़ी।


और सत्य! यह एक शब्द, तू

कितना गहन हुआ है?

मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का

पाला हुआ सुआ है।


सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी

रट-सी लगी हुई है।

किन्तु स्पर्श से तर्क-करो, क्यों

बनता ‘छुईमुई’ है।


असुर पुरोहित उस विपल्व से

बचकर भटक रहे थे।

वे किलात-आकुलि थे जिसने

कष्ट अनेक सहे थे।


देख-देख कर मनु का पशु, जो

व्याकुल चंचल रहती।

उनकी आमिष-लोलुप-रसना

आँखों से कुछ कहती।


‘क्यों किलात! खाते-खाते तृण

और कहाँ तक जीऊँ।

कब तक मैं देखूँ जीवित पशु

घूँट लहू का पीऊँ?


क्या कोई इसका उपाय ही

नहीं कि इसको खाऊँ?

बहुत दिनों पर एक बार तो

सुख की बीन बज़ाऊँ।’


आकुलि ने तब कहा-

‘देखते नहीं साथ में उसके।

एक मृदुलता की, ममता की

छाया रहती हँस के।


अंधकार को दूर भगाती, वह

आलोक किरण-सी।

मेरी माया बिंध जाती है

जिससे हलके घन-सी।


तो भी चलो आज़ कुछ करके

तब मैं स्वस्थ रहूँगा,

या जो भी आवेंगे सुख-दुख

उनको सहज़ सहूँगा।’


यों हीं दोनों कर विचार, उस

कुंज़ द्वार पर आये।

जहाँ सोचते थे मनु बैठे

मन से ध्यान लगाये।


“कर्म-यज्ञ से जीवन के

सपनों का स्वर्ग मिलेगा।

इसी विपिन में मानस की

आशा का कुसुम खिलेगा।


किंतु बनेगा कौन पुरोहित

अब यह प्रश्न नया है।

किस विधान से करूँ यज्ञ

यह पथ किस ओर गया है?


श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी

वह अनंत अभिलाषा।

फिर इस निर्ज़न में खोज़े अब

किसको मेरी आशा।


कहा असुर मित्रों ने अपना

मुख गंभीर बनाये।

जिनके लिये यज्ञ होगा

हम उनके भेजे आये।


यज़न करोगे क्या तुम? फिर यह

किसको खोज़ रहे हो?

अरे पुरोहित की आशा में

कितने कष्ट सहे हो।


इस जगती के प्रतिनिधि, जिनसे

प्रकट निशीथ सवेरा।

“मित्र-वरुण जिनकी छाया है

यह आलोक-अँधेरा।


वे पथ-दर्शक हों सब

विधि पूरी होगी मेरी।

चलो आज़ फिर से वेदी पर

हो ज्वाला की फेरी।”


“परंपरागत कर्मों की वे

कितनी सुंदर लड़ियाँ।

जिनमें-साधन की उलझी हैं

जिसमें सुख की घड़ियाँ।————————————


जिनमें है प्रेरणामयी-सी

संचित कितनी कृतियाँ।

पुलकभरी सुख देने वाली

बन कर मादक स्मृतियाँ।


साधारण से कुछ अतिरंजित

गति में मधुर त्वरा-सी।

उत्सव-लीला, निर्जनता की

जिससे कटे उदासी।


एक विशेष प्रकार का कुतूहल

होगा श्रद्धा को भी।”

प्रसन्नता से नाच उठा, मन

नूतनता का लोभी।


यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी

धधक रही थी ज्वाला।

दारुण-दृश्य रुधिर के छींटे

अस्थि खंड की माला।


वेदी की निर्मम-प्रसन्नता

पशु की कातर वाणी।

सोम-पात्र भी भरा

धरा था पुरोडाश भी आगे।———————————


“जिसका था उल्लास निरखना

वही अलग जा बैठी।

यह सब क्यों फिर दृप्त वासना

लगी गरज़ने ऐंठी।


जिसमें जीवन का संचित सुख

सुंदर मूर्त बना है।

हृदय खोलकर कैसे उसको

कहूँ कि वह अपना है।


वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ

इसमें सुनिहित होगा।

आज़ वही पशु मर कर भी क्या

सुख में बाधक होगा?


श्रद्धा रूठ गयी तो फिर क्या

उसे मनाना होगा?

या वह स्वंय मान जायेगी,

किस पथ जाना होगा।”


पुरोडाश के साथ सोम का

पान लगे मनु करने।

लगे प्राण के रिक्त अंश को

मादकता से भरने।


संध्या की धूसर छाया में

शैल श्रृंग की रेखा।

अंकित थी दिगंत अंबर में

लिये मलिन शशि-लेखा।


श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में

दुखी लौट कर आयी।

एक विरक्ति-बोझ सी ढोती

मन ही मन बिलखायी।


सूखी काष्ठ संधि में पतली

अनल शिखा जलती थी।

उस धुँधले गुह में आभा से

तामस को छलती सी।


किंतु कभी बुझ जाती पाकर

शीत पवन के झोंके।

कभी उसी से जल उठती

तब कौन उसे फिर रोके?


कामायनी पड़ी थी अपना

कोमल चर्म बिछा के।

श्रम मानो विश्राम कर रहा

मृदु आलस को पा के।


धीरे-धीरे जगत चल रहा

अपने उस ऋज़ुपथ में।

धीरे-धीरे खिलते तारे

मृग जुतते विधुरथ में।


अंचल लटकाती निशीथिनी

अपना ज्योत्स्ना-शाली।

जिसकी छाया में सुख पावे

सृष्टि वेदना वाली।


उच्च शैल-शिखरों पर हँसती

प्रकृति चंचल बाला।

धवल हँसी बिखराती

अपना फैला मधुर उजाला।


जीवन की उद्धाम लालसा

उलझी जिसमें व्रीड़ा।

एक तीव्र उन्माद और

मन मथने वाली पीड़ा।


मधुर विरक्ति-भरी आकुलता,

घिरती हृदय-गगन में।

अंतर्दाह स्नेह का तब भी

होता था उस मन में।


वे असहाय नयन थे

खुलते-मुँदते भीषणता में।

आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था

स्पष्ट कुटिल कटुता में।


“कितना दुःख! जिसे मैं चाहूँ

वह कुछ और बना हो।

मेरा मानस-चित्र खींचना

सुंदर सा सपना हो।


जाग उठी है दारुण-ज्वाला

इस अनंत मधुबन में।

कैसे बुझे कौन कह देगा

इस नीरव निर्ज़न में?


यह अंनत अवकाश नीड़-सा

जिसका व्यथित बसेरा।

वही वेदना सज़ग पलक में

भर कर अलस सवेरा।


काँप रहें हैं चरण पवन के,

विस्तृत नीरवता सी।

धुली जा रही है दिशि-दिशि की

नभ में मलिन उदासी।


अंतरतम की प्यास

विकलता से लिपटी बढ़ती है।

युग-युग की असफलता का

अवलंबन ले चढ़ती है।


विश्व विपुल-आंतक-त्रस्त है

अपने ताप विषम से।

फैल रही है घनी नीलिमा

अंतर्दाह परम-से।


उद्वेलित है उदधि

लहरियाँ लौट रहीं व्याकुल सी।

चक्रवाल की धुँधली रेखा

मानों जाती झुलसी।


सघन घूम कुँड़ल में कैसी

नाच रही ये ज्वाला।

तिमिर फणी पहने है मानों

अपने मणि की माला।


जगती तल का सारा क्रदंन

यह विषमयी विषमता।

चुभने वाला अंतरग छल

अति दारुण निर्ममता।

लज्जा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

“फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में।
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में।

कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों।
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों।

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।

मैं उसी चपल की धात्री हूँ
गौरव महिमा हूँ सिखलाती।
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती।

मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो।
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी।
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ।

लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती।
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती।

चंचल किशोर सुंदरता की
मैं करती रहती रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।”

“हाँ, ठीक, परंतु बताओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है?
इस निविड़ निशा में संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयव की सुंदर कोमलता
लेकर मैं सबसे हारी हूँ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपना ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है?

सर्वस्व-समर्पण करने की
विश्वास-महा-तरू-छाया में।
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में?

छायापथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु-लीला।
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीहता श्रम-शीला?

निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में।
चाहती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में।

नारी जीवन का चित्र यही, क्या?
विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो।

रूकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच-विचार न कर सकती।
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती।

मैं जब भी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ।
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ।

इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता है।”

“क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।

देवों की विजय, दानवों की
हारों का होता-युद्ध रहा।
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित
रह नित्य-विरूद्ध रहा।

आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।